संवाद धरा २
ग़म की दुनिया में अपने खोज रहीं,
रो रही हु मै तड़प तड़प के,
दर्द कि कथा किसे सुनाऊं मैं,
यहां अकेली बैठी मैं सोच रही,
सर्वार्थी तुम दुनिया वाले,
भरोसे के लायक नहीं,
ना जाने कितने संकेत देती में अपने घाव के,
पर , तूम निर्दय को समझते ही नहीं,
अगं भंग किया मुझको,
अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए,
रक्त कि नदियां बहा दि तुमने,
चिख चिख पुकारी में,
पर बोली सुनीं ना कोई मेरी,
सुंदर अंगों को बेढंग किया तुमने,
रक्षा कर सके ना तुम मेरी,
और उल्टे आरोप लगाते मुझ पे,
तुम्हारे ही गलतियों का हि परिणाम यह,
आज जो तांडव कर रही प्रकृति समक्ष तुम्हारे,
मेरे रक्षकों ने किया तुम्हारी हाल यह,
प्रसन्न होउ या दुखी होउ
यहीं विचार विमर्श कर रही अपने दिलों से