संदूकची सपनों वाली
माँ ने ले दी थी
एक संदूकची
दसवें जन्मदिन पर,
कहा -खूब सपने जमा करना
मेरी लाडो,इस बक्से में।
और फिर बड़ी हो कर
एक एक कर के
देखना इन सपनों को।।
मायके की नींदों में
बेपरवाह सोते सोते
खूब सपने देखे
और मेरी सपनों वाली
संदूकची भर गयी, माँ।।
तुमने ताला लगा कर
थमा दी वो संदूकची
मुझे विदाई के समय।।
घर गृहस्थी में जो उलझी
उसकी याद ही न आई
कई बरस बीत गए
उसे खोल ही नही पाई।।
शायद दम घुटने से
मर चुके होंगे वो सपने,
इस लिए जान बूझ कर
गुम कर दी मैंने
संदूकची की चाबी।।
अब सोचती हूँ
नया ताला लगा कर
दे दूं इसे नातिन को
ये कह कर
कि इसमें सपने
जमा मत करना।
रोज़ देखना
साकार करना
पंख लगा लेना
अपने सपनों को
ऊंची से ऊंची
उड़ान भरना।
नाप लेना ये पूरा आकाश
सितारों से दामन भर लेना।
कुलांचे भरना हिरनी बन
खेत खलिहान,जंगल बागीचे।
जीत लेना गगनचुम्बी चोटियां
गहरे सागर, दरिया ,नदियां
बहना मस्त बावरी हवा सी ।
अपने सपने पहनना,
ओढ़ना , बिछाना।
बस…
अपने सपनो का दम
घुटने मत देना
अपने सपनों को कभी
मरने मत देना।।
***धीरजा शर्मा***