‘संकल्प’
आओ सुनो! सब एक कहानी,
है यह नई, नहीं सदियों पुरानी।
हुआ अक्षर संत निरक्षर ज्ञानी,
लिखा गया जग में अपनी कहानी।
बेचा करता था संतरे चौराहों पर,
मिला न बचपन में पढ़ने का अवसर।
अंग्रेज दंपत्ति ने पूछा मोल,
समझ सका नहीं उनके बोल।
भाषा समझ न पाया वो,
दाम बता नहीं पाया वो।
आत्म ग्लानि से मन व्यथित हो गया ,
मन में फूटा एक विचार नया।
मुझ सा न रहे कोई निरक्षर,
मेरा गाँव बने सारा ही साक्षर।
कठिन श्रम से जोड़ी इक-इक पाई ,
गाँव में ही पाठशाला खुलवाई।
था न कभी जहाँ कोई विद्यालय ,
है वहीं खड़ा,अब ज्ञान का आलय।
असंभव को संभव कर दिखलाया,
है पढ़ना जरूरी सबको बतलाया।
ज्ञान नहीं था अक्षर का उसको,
फिर भी वो अक्षर संत कहाया।
हरेकला हजब्बा जी ने देखो,
काम अनोखा करके दिखलाया।
मिला सुफल सत्कर्म का उसको,
सम्मान पद्मश्री का फिर पाया।
हो धन्य ! हरेकला तुम जिसने,
निरक्षर हो अक्षर का ज्ञान फैलाया।
©®Gn✍