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24 May 2023 · 4 min read

श्री गीता अध्याय दसवां

श्री गीता दसवां अध्याय

श्री भगवान कहते हैं—

महाबाहो हे ! फिर से सुन, प्रभाव युक्त रहस्य वचन को।
रखता तू अति प्रेम, कहूंँगा तेरे हित की इच्छा से जिसको।।

जानें न देवर्षि, महर्षी, उत्पत्ति मेरी लीला से प्रकट होने को।
क्योंकि हूंँ मैं ही तो देवों , महर्षियों का आदि कारण जो।।

जानें जो अजन्मा, अनादि लोगों के महान तत्व ईश्वरीय को।
ऐसे मनुष्यों में हैं श्रेष्ठ ज्ञानवान , होते मुक्त सब पापों से जो।।

होते हैं समभाव विविध भय-अभय,दान,कीर्ति ,संतोष, अहिंसा, समता में।
सुख-दुख,प्रलय, उत्पत्ति,क्षमा ,सत्य ,ज्ञान ,निर्णय करने की दक्षता में।।

है संपूर्ण प्रजा जिनकी,सनकादि, स्वयंभुव, चौदह मनु आदि।
सात महर्षि जन ,चार पूर्व उनसे ,सब ही उत्पन्न हुए मेरे संकल्प से।।

जानते जो नर मम परम ऐश्वर्य रूप योग शक्ति को।
पाते वही निसंदेह ,निश्चित ही ,नर, योग भक्ति को।।

करते जो मम भक्त , मेरे प्रभाव ,गुण चर्चा निरंतर मन से।
हों संतुष्ट रमण करें मुझ में, निज जीवन को अर्पण करके।।

प्रेम पूर्वक ध्यान आदि में लगे निरंतर मुझको भजने वाले को।
देता हूँ तत्वज्ञान स्वरूप योग ,पा लेते जिससे तब वे मुझको।।

हे अर्जुन ! करने योग्य अनुग्रह उन पर ,मन में हो स्थित उनके।
नष्ट करूं मैं स्वयं अज्ञान को,तत्व ज्ञान प्रकाशमय दीपक से।।

अर्जुन बोले-
आप परमब्रह्म, धाम ,पवित्र परम हैं।
कहें सनातन दिव्य ,सर्व व्यापी अजन्मा, सिद्ध,देव गण।
वैसे ही कहें नारद देवर्षि, देवल ,व्यास ,स्वयं आप,सभी ऋषि गण।।

हे केशव!
कहते हैं जो आप मेरे प्रति जो ,मैं सत्य मानता उनको।
नहीं जानते दानव देव,तुम्हारे लीलामय स्वरूप को।।

हे भूतों के ईश्वर ! आप हैं उनको उत्पन्न करने वाले।
हे देवों के देव पुरुषोत्तम ! आप स्वयं,स्वयं को जानने वाले।।

इसीलिए हैं आप स्वयं समर्थ अपनी दिव्य विभूतियों से।
जिनके द्वारा व्याप्त जगत में आप स्वयं ही हैं स्वयं से।।

यह योगेश्वर!

बतलाओ अब किस विधि चिंतन कर मैं आपको जानूं।
किन- किन भावों में चिंतन करने योग्य स्वयं को मानूं।।

हे जनार्दन ! विस्तार पूर्वक फिर से कहिए अपनी योग शक्ति विभूति को।
तृप्त नहीं होता सुन वचन अमृततुल्य ,कैसे रोकूं उत्कंठा को।।

बोले श्री भगवान,

हे कुलश्रेष्ठ ! कहूं प्रधानता से अपनी दिव्य विभूतियों को।
अंत नहीं विस्तार का मेरा, तेरे हित में मैं कहता हूँ जिसको।।

हे अर्जुन! मैं सब भूतों में स्थित आत्मा हूं।
सबका ही हूँ आदि ,अंत और मध्य भी हूँ।।

हूँ अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु, ज्योतियों में रश्मि वाला सूर्य हूंँ मैं।
उनचास वायु देवताओं का बल तेज, नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ मैं।

एकादश रूद्रों में शंकर, यक्ष तथा राक्षसों में घन स्वामी कुबेर हूँ मैं ।।
अग्नि आठ वसुओं में हूंँ मैं, शिखर पर्वतों में पर्वत सुमेरु हूंँ मैं।।
पुरखों में मुखिया बृहस्पति हूंँ,सेनापतियों में स्कंध जलाशयों में समुद्र हूंँ मैं।।
हुँ महर्षियों में भृगु, शब्दों में ओंकार हूंँ मैं यज्ञ में जपयज्ञ स्थिरों में हिमालय पहाड़ हूंँ मैं।।

सब वृक्षों में पीपल तो देवर्षियों में मुनि नारद हूंँ, मैं गंधर्वों में चित्ररथ ,सिद्धों में कपिल मुनि हूं मैं।
घोड़ों में अमृत के साथ उत्पन्न होने वाला उच्चश्रृवा, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत तो मनुष्यों में राजा हूंँ मैं।।

शस्त्रों में हूँ वज्र, गौओं में कामधेनु हूंँ मैं, संतानोंपत्ति हेतु कामदेव तो सर्पों में वासुकी हूंँ मैं।
नागों में हूं शेषनाग ,अधिपति जल चरों का वरुण हूं मैं, पितरों में अर्यमा तो शासन करने वालों में यमराज हूंँ।।

दैत्यों में प्रहलाद ,गणना में समय ,पशुओं में मृगराज सिंह पक्षियों में गरुड़ हूंँ मैं।
पवित्र करने वालों में वायु, शस्त्र धारियों में श्रीराम हूंँ मैं, मछलियों में मगर तो नदियों में भागीरथी हूंँ मैं।।

सृष्टि का आदि ,अंत, मध्य हूंँ मैं, विद्याओं में ब्रह्मविद्या, विवादों का वाद हूंँ मैं।
हे पार्थ पाठ्य अक्षरों में ओंकार समासों में द्वंद नामक समास हूँ मैं।।

काल का हूँ महाकाल, अक्षय काल सब ओर मुख वाला विराट स्वरूप हूंँ मैं ।
सब का नाश करने वाला मृत्यु ,उत्पन्न होने वालों का उत्पत्ति हेतु भी हूँ मैं।।

स्त्रियों में कीर्ति ,श्रीवाक ,क्षमा ,स्मृति, मेधा,धृति हूंँ मैं।
गेय श्रुतियों में ब्रह्म समास, छंदों में गायत्री हूंँ मैं।।

महीनों में हूँ मार्गशीष और ऋतुओं में वसंत भी हूंँ मैं।
छल करने वालों में डर, प्रभावशालियों का प्रभाव हूंँ मैं।।

विजयियों की विजय, निश्चयियों का निश्चय,
सात्विक पुरुषों का सात्विक भाव हूँ मैं।।
वृष्णिवंशियों का वासुदेव, पांडवों का धनंजय,
मुनियों में वेदव्यास, कवियों में शुक्राचार्य हूंँ मैं।।

दमन करने की शक्ति भी मैं, नीति जीतने की मैं।
गुप्त भावों का रक्षक, मौन ज्ञान वालों का ,तत्वज्ञान भी मैं।।

नहीं चराचर भूत जग माहीं, जिनका उत्पत्ति कारक में नहीं।
दिव्य विभूतियों का अंत भी जग में मेरे सिवा कोई नहीं।।

यह तेरे हित संक्षिप्त में मैंने कहा
जो जो विभूति, शक्ति, कांति ,
ऐश्वर्या, वस्तु,इस जग में है
वे अभिव्यक्ति मेरे अंश की ही हैं
यही सब मैंने समझाया है।

मीरा परिहार 💐✍️

Language: Hindi
1 Like · 218 Views
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