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25 Nov 2023 · 12 min read

ऋषि मगस्तय और थार का रेगिस्तान (पौराणिक कहानी)

सैकड़ों वर्ष पहले आज जहाँ पर थार मरुस्थल है पहले वहाँ पर विशाल समुद्र हुआ करता था। सप्त सैंधव नदियां और सरस्वती नदी इसी में आकर अपना जल उड़ेलती थी। वास्तव में पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत के लिए पृथ्वी ने वरुण देवता का आह्वान किया था जिससे पृथ्वी पर जल आ सके और जीवन प्रारंभ हो सके। अतः पृथ्वी ने वरुण देवता की पूजा के लिए जिस थाल का प्रयोग किया था वरुण देवता ने पृथ्वी पर आने के लिए उसी थाल में सर्वप्रथम अपना जल प्रवाह किया था। इसलिए वहाँ पर थाल जैसी आकृति में समुद्र का निर्माण हुआ था, जिस कारण उसे थाल समुद्र कहते थे। किंतु देवासुर संग्राम के समय जब देवताओं की शक्ति असुरों से कमजोर सिद्ध हो रही थी तब सरस्वती नदी तट पर रहने वाले एक ऋषि जिनका नाम मगस्तय था वो देवताओं की सहायता करने के लिए शिव से वरदान प्राप्त करने तपस्या करने लगे। उन्होंने प्रण लिया कि जब तक वो शिव को अपने सामने प्रकट होने के लिए विवश नहीं कर देंगे तब तक वो जल की एक बूंद भी ग्रहण नहीं करेंगे। इस प्रकार मगस्तय ऋषि वहीं सरस्वती नदी तट पर घोर तपस्या करने लगे। ऋषि मगस्तय का यह प्रण देखकर देवताओं के सेनापति देवराज इंद्र भी बहुत खुश हुए और उन्होंने मगस्तय ऋषि के आसपास एक ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि उनके पास जल की एक बूंद तक भी ना पहुँच सके, जिससे वो अपना प्रण पूरा कर सकें और शिव से देवताओं की विजय का वरदान प्राप्त कर सकें। वास्तव में उन दिनों सरस्वती नदी में सभी लोग अपने पूर्वजों की आत्माओं का तर्पण करते थे और स्नान कर उनको स्वर्गगामि करते थे।
इस प्रकार दिन महीनों में और महीने वर्ष बनकर गुजरने लगे। मगस्तय ऋषि अपनी तपस्या में उसी प्रकार लगे रहे किंतु इंद्र के प्रभाव से मगस्तय ऋषि के आश्रम के पास बहने वाली सरस्वती नदी जमीन के अंदर चली गयी, और पास स्थित थाल समुद्र ने उस जंगल में बरसात करने वाले अपने मेघों को वहाँ बरसात करने से मना कर दिया, जिससे वो मेघ आकाश में ऊपर उठकर सुदूर पूर्व दिशा में बरसात करते रहे। इस कारण ऋषि मगस्तय के आसपास का जंगल वीरान होने लगा जीव जंतु पानी की तलाश में इधर उधर दौड़ने लगे किंतु कहीं भी पानी नहीं मिल रहा था। सरस्वती नदी में रहने वाली मछलियां, कछुए, घड़ियाल सब पानी की कमी से मरने लगे। वहीं जंगली जानवर भी पानी की कमी से इधर-उधर दौड़ने लगे। उनके पश्चिम में थाल समुद्र था इसलिए वो जंगल से पूर्व दिशा की तरफ भागने लगे जिस दिशा में मेघ जाते थे। कुछ वहाँ से निकलने में सफल रहे किंतु ज्यादातर पानी की कमी से वहीं पर दम तोड़ने लगे। एक तो सरस्वती नदी जमीन के अंदर बहने लगी दूसरा मेघों ने भी वहाँ बरसात करना बंद कर दिया था जिससे वहाँ के पेड़ पौधे भी सूखने लगे। इस प्रकार देखते-देखते कुछ ही वर्षों में वह विशाल हरा भरा जंगल निर्जन मरुस्थल जैसा बनने लगा। अब वहाँ पर चारों तरफ जंगली जानवरों की लाशें बिखरी पड़ी थी या फिर बड़े-बड़े सूखे पेड़ खड़े थे। जिनपर ना तो पत्ते बचे थे और ना ही पेड़ों की छाल। मगर ऋषि मगस्तय इन सभी से बिना प्रभावित हुए उसी प्रकार अपनी तपस्या करते रहे।
इस प्रकार सरस्वती नदी का जल या मेघों की वर्षा से ऋषि मगस्तय की तपस्या टूट ना जाए इससे बचने के लिए इंद्र के किए प्रयास के कारण समस्त हरा भरा जंगल निर्जन प्रदेश में परिवर्तित हो चुका था। इंद्र को डर था कि कहीं सरस्वती नदी का जल सूर्य के तप से वाष्पित होकर मगस्तय ऋषि तक ना पहुँच जाए या कोई असुर या जानवर उस नदी का पानी मगस्तय ऋषि तक ना पहुँचा दे।
इस प्रकार जंगल पूर्णतः समाप्त हो गया । जंगल समाप्त होने से वहाँ का तापमान बढ़ने लगा और फिर सूर्य के बढ़ते ताप से, जो पेड़ सूखकर खड़े थे वो जलने लगे, जो जंतु अभी तक जैसे तैसे जीवित थे वो भी जलकर राख हो गए। जंगल के सूखे वृक्षों में लगी आग जब ऋषि मगस्तय तक पहुँची तो उनका शरीर आग से तपने लगा, उनके सिर की जटाएं तथा उनकी दाड़ी भी जल कर राख गयी। जिससे ऋषि मगस्तय की आँखें अचानक खुल गयी। आंखें खुलते ही जैसे ही उनकी नजरें अपने सामने के भूभाग पर पड़ी तो वह देखकर स्तब्ध रह गए कि उनके चारों और आग ही आग फैली हुई थी, जंगल ऐसे जल रहा था जैसे वो जंगल नहीं बल्कि सुखी लकड़ियों का कोई ढेर हो, आसमान धुआं से आच्छादित हो चुका था, धुआं और राख के कणों के सिवाय वहाँ कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, जिससे साँस लेना भी दुष्कर हो रहा था। तभी ऋषि जल्दी से खड़े हुए और सरस्वती नदी की तरफ दौड़े किंतु उन्होंने देखा कि वहाँ पर तो कोई नदी ही नहीं थी। केवल नदी के बहने का स्थान था और वो तट थे जिन्हें देखकर लग रहा था कि कुछ वर्षों पहले यहां कोई विशाल नदी बहती होगी। यह देखकर ऋषि मगस्तय को बहुत आश्चर्य हुआ कि, “ इतनी बड़ी नदी अचानक से कैसे समाप्त कैसे हो गयी, जंगल में आग लगना तो सामान्य सी बात है किंतु एक विशाल नदी का अचानक समाप्त हो जाना आश्चर्य से बढ़कर है..?”
यह सब देखकर ऋषि मगस्तय याद करने लगे कि जब उन्होंने तपस्या प्रारंभ की थी उस समय यह एक सुंदर और भव्य जंगल हुआ करता था किंतु इतने कम समय में वह जलकर राख हो गया। ऋषि की नजर जिधर-जिधर गयी ऋषि को जानवरों के जले हुए शव ही दिखने लगे, सूखे हुए पुष्प एवं लताओं के वृक्ष और जलते हुए गगनचुम्भी वृक्ष। थाल समुद्र में गिरने वाली सुंदर सलिल नदी सरस्वती भी पूर्णतः सूख चुकी है, केवल उसका नदी तट और नदी गोद ही बाकी है जिसमें होकर वह बहती थी। उसके तट और नदी गोद में मछली, कछुए, घड़ियाल और अन्य जंगली जानवरों की हड्डियां बिखरी पड़ी थी, जिन्हें देखकर लग रहा था कि जलीय और जंगली जंतु जंगल में आग लगने से पहले ही पानी की कमी से काल कलवित हो गए थे। जंगल की आग तो सिर्फ उनकी शेष अस्थियों को राख कर भूमि साफ करने लगी है। यह सब देखकर ऋषि मगस्तय को बहुत दुख और हृदय में पीड़ा हो रही थी कि, “ ऐसा क्यों गया और कैसे हो गया..?”
यह सब देखकर ऋषि मगस्तय का हृदय करुणा से भर चुका था और वो जंगल की पुरानी यादों और सरस्वती नदी को याद कर रोने लगे। तभी ऋषि को आभास हुआ कि, “ कहीं उनकी तपस्या से तो यह जंगल समाप्त नहीं हो गया..?”
यह सोचकर ऋषि दुख से व्याकुल हो उठे और वहीं राख के ढेर पर बैठ गए। तभी ऋषि को आभास हुआ कि अभी तो आषाढ़ का महीना चल रहा है और जमीन ऐसे सुखी पड़ी है जैसे कि यहाँ सैकड़ों वर्षों से कभी बारिश ही ना हुई हो। ऋषि ने आसमान की तरफ देखा तो आकाश में केवल जंगल में लगी आग का धुआं और राख के कण ही चारों तरफ दिख रहे थे बाकी का आसमान एक दम साफ था वहाँ पर कहीं भी कोई बरसाती बादल या सामान्य बादल नहीं थे। तभी ऋषि को काले मेघ आसमान में दिखे जो जल से भरे हुए थे किंतु उनकी दिशा सुदूर पूर्व लग रही थी, और वो उसी ओर ऐसे भागे चले जा रहे थे जैसे कोई महिला कुआँ से पानी भरकर अपने घर की तरफ सिर पर मटका रखकर सरपट दौड़ी चली जाती है।
वातावरण में हुए इस अति विपरीत परिवर्तन को देखकर ऋषि मगस्तय अत्यधिक परेशान हो गए कि, “ इस स्थान को किसका श्राप लग गया कि हरा भरा मनमोहक जंगल निर्जन भूमि में परिवर्तित हो गया..?” आकाश में ना बादल थे ना ही वहाँ की वायु में आद्रता थी। यह देखकर ऋषि को अत्यधिक हैरानी भी हो रही थी और उनको भय लगा रहा था कि, “ कहीं उनकी तपस्या से बादल भी यहाँ से विमुख तो नहीं हो गए..?”
अपने इसी प्रश्न की तलाश में ऋषि थाल समुद्र के उस ओर चल दिए जहाँ सरस्वती नदी थाल समुद्र में मिलती थी क्योंकि उस स्थान पर सर्वाधिक मछलियाँ होती थी इसलिए वहाँ पर मछुआरों का जमघट लगा रहता था। ऋषि ने सोचा कि वहीं पहुँचकर वहाँ उपस्थित मछुआरों से इस परिवर्तन की जानकारी लूंगा, क्योंकि वो वहीं से दिन रात मछली पकड़ते हैं इसलिए उनको मौसम के इस परिवर्तन की पूरी जानकारी होगी। वास्तव में इस दारुण परिवर्तन ने ऋषि के अंतर्मन को हिला दिया था जिस कारण उनके मन में हर बार यही प्रश्न कौंध रहा था कि “ आखिर में ऐसी क्या बात हुई कि थाल समुद्र ने जल से भरे मेघों को यहाँ भेजने से रोक दिया, जबकि यहाँ पर बरसात कराने का उत्तरदायित्व तो उसी के मेघों का है। जंगल में आग लगना एक सामान्य बात है, नदी का सूखना भी हो सकता है किंतु मेघ अपना रास्ता बदल दें यह कैसे संभव हो सकता है क्योंकि इसमें मानवीय हस्तक्षेप की कोई संभावना ही नहीं है.?”
इसी दुख और पीड़ा में ऋषि मगस्तय थाल समुद्र के उसी किनारे पर पहुँच गए जहाँ पर सरस्वती नदी थाल समुद्र में मिलती थी। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि वहाँ पर कोई भी मछुआरा नहीं था केवल उनकी टूटी फूटी नावें पड़ी हुई थी जो निकट अतीत में उनके यहाँ होने का सबूत दे रही थीं। यह देखकर ऋषि को आश्चर्य हुआ किंतु तभी उन्होंने देखा कि मेघ समुद्र से पानी भर रहे हैं किंतु उस दिशा में नहीं जा रहे जिस दिशा में वो पहले जाते थे अर्थात जंगल की तरफ बल्कि बहुत ऊपर उठकर सुदूर पूर्व में जा रहे हैं। यह देखकर हृदय से व्याकुल ऋषि का गुस्सा समुद्र के ऊपर फूट पड़ा और वो क्रोध में चीखते हुए समुद्र से बोले, “ समुद्र थाल तेरा इतना दुस्साहस कैसे हुआ कि तू अपने स्थान को निर्जन कर सुदूर पूर्व के लिए मेघों को भेज रहा है, क्या तुझे यह दिख नहीं रहा कि हरा भरा जंगल निर्जन हो गया, जीव जंतु पानी की कमी से अकाल मारे गए हैं..?”
ऋषि की क्रोध भरी गर्जना सुनने के बाद भी थाल समुद्र प्रकट नहीं हुआ और अपने मेघों को उसी प्रकार आदेश देता रहा। यह देखकर ऋषि का गुस्सा अपने चरम पर पहुँच गया और तभी उन्होंने समुद्र से कहा कि, “ या तो मुझे इसका कारण बता अन्यथा मैं तेरा यहाँ से अस्तित्व ही मिटा दूंगा..!”
ऋषि का क्रोध देख समुद्र थाल मानव रूप धारण कर ऋषि के समक्ष प्रस्तुत हुआ और हाथ जोड़कर बोला- “ मुनिवर इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, मुझे तो यह आदेश देवराज इंद्र ने दिया है, जिससे आपकी तपस्या पूर्ण हो सके, तपस्या करते समय अगर मेघ जंगल में बरसात करते तो एक भी बूंद पानी ना पीने का आपका प्रण टूट सकता था, इसलिए उन्होंने ऐसा करने का मुझे आदेश दिया..”
समुद्र की बात सुन ऋषि मगस्तय को इंद्र पर गुस्सा आया और वो जोर से चीखे, “ मूर्ख देवेंद्र…!”
ऋषि का क्रोध देख, देवराज इंद्र शीघ्र ही उनके सामने उपस्थित हुए और हाथ जोड़कर बोले, “ महर्षि यह आदेश मैंने आपकी सुविधा के लिए दिया था..!”
“ तुम किस प्रकार से स्वर्ग के अधिपति हो जब तुमको इतना तक ज्ञान नहीं कि बगैर पानी के पेड़, पौधों, जीव जंतु मर जाएंगे, पानी जीवन की मुख्य पाँच जरूरत में से एक है, जिसके बिना जीवन संभव नहीं..”
“ ऋषि मुझे क्षमा करो मैंने आपके भले के लिए यह किया था…।” देवराज इंद्र ने कहा
“ मेरे भले के लिए..! यह किस प्रकार का भला देवराज, पानी ना पीने का प्रण मैंने लिया था ना कि इस जंगल ने, यहाँ के जीव जंतुओं ने, पेड़ पौधों ने, मछलियों ने.. और तुमने इन सभी को पानी ना देकर प्यासा ही मार डाला, अब इनकी मृत्यु भागीदार कौन होगा मैं या आप..”
“ कोई नहीं होगा महर्षि क्योंकि आप मानवता की रक्षा के लिए तप कर रहे थे उसी के लिए आपने प्रण लिया और आपके तप को पूर्ण कराना मेरा कर्तव्य था..”
“ मेरा तप पूर्ण कराना आपका कर्तव्य था..! यह किसने कहा, क्या मैंने आपसे पूछकर तप किया था या फिर मैंने आपसे कोई सहायता माँगी थी..?” ऋषि मगस्तय ने देवराज इंद्र से पूछा
“ नहीं महर्षि मगर आपका तप जरूरी था..”
“ मेरा तप जरूरी था तो इन मासूम जानवर, पेड़ ,पौधों का जीवन जरूरी नहीं, देवराज..?”
“ महर्षि मेरा ऐसा विचार नहीं था यह तो सिर्फ एक कार्य की प्रतिक्रिया है..” देवराज ने उत्तर दिया
देवराज इंद्र की बात सुन ऋषि रोने लगे और हाथ फैलाकर बोले-“ क्या इसी कारण सरस्वती नदी भी यहाँ से लुप्त हो गयी है तुम्हारे उसी कार्य की प्रतिक्रिया स्वरूप..?”
“ नहीं महर्षि, मैंने सरस्वती नदी से कहा था कि जब तक ऋषि की तपस्या पूर्ण नहीं हो जाती तुम उसी स्थान पर जमीन के नीचे चली जाओ..”
देवराज इंद्र की बात सुन ऋषि का क्रोध बढ़ गया और बोले- “ तुम्हारे साथ सरस्वती नदी और थाल समुद्र भी आततायी हो गए ये दोनों भी अपना कर्तव्य भूल गए, क्या ये नहीं समझते कि बगैर पानी के जीवन संभव नहीं है और प्यासों को पानी पिलाने में ही इनका अस्तित्व है..”
ऋषि का क्रोध देख वहीं पर सरस्वती नदी प्रकट हुई और हाथ जोड़कर बोली- “ ऋषि हमें क्षमा करो, हमें लगा कि इस तरह हम आपकी तपस्या को शीघ्र पूर्ण करा देंगे, जिससे आपको शिव वरदान जल्द ही मिल जाएगा और फिर देवता उससे असुरों पर विजय प्राप्त कर पाएंगे..”
उनकी बात सुन ऋषि मगस्तय बोले- ” हाँ यह सत्य है कि मैंने देवताओं की विजय के लिए ही यह तप प्रारंभ किया था, मुझे लगा था कि देवता विजयी हो जाएंगे तो शीघ्र ही धर्म स्थापना होगी किंतु..!”
” किंतु क्या मुनिवर..” थाल समुद्र ने पूछा
थाल समुद्र की शंका पर ऋषि मगस्तय बोले- ” किंतु अब जब मैंने इस जंगल को देखा, इसमें मरे पड़े लाखों जीव, जंतु, जानवर और पक्षियों को देखा तो लग रहा है मैं गलत था..”
” परंतु ऋषिवर..”
देवराज इंद्र आगे कुछ कहते उससे पहले ही ऋषि बोले- ” किंतु परंतु कुछ नहीं देवराज, तुममे और असुरों में अंतर ही क्या रहा, वो भी धन, संपत्ति, संपदा और सत्ता के लिए ही तो असुर अन्याय करते है और देवता इनकी चिंता किए बगैर न्याय करते हैं धर्म स्थापना करते, जो तुमने नहीं की, तुम भी उन्हीं की तरह सत्ता और संपत्ति के लालच में धर्म-अधर्म भूल गए, भूल गए कि निर्दोष की बलि चढ़ाकर कोई युध्द नहीं जीता जा सकता और तुम तो स्वयं त्रिदेव के प्रतिनिधि हो फिर भी.. देवराज तुमने ऐसा किया..?”
” ऋषि हमसे बड़ी भूल हो गयी, हमें क्षमा करें..” सरस्वती नदी हाथ जोड़कर बोली
” क्षमा.. तुम तीनों की जरूरत है संसार को इसलिए मैं तुम्हें कठोर दंड भी नहीं दे सकता मगर इतना जरूर कहता हूँ कि वह तुम्हारा कर्तव्य है जिसे तुम अपना अधिकार और अहंकार समझ बैठे हो.. अब तुम ही विचार करो, इन मरे पड़े जीव जंतु, और निर्दोष जानवरों को देखकर कि इनका क्या दोष था.. यही कि ये दुर्भाग्य से उसी जंगल में शरण पाए हुए थे जिसमें मैंने शरण ली..?”
ऋषि मगस्तय की बात सुन तीनों की नजरें नीचे हो गयी और सुनने लगे। तभी ऋषि मगस्तय पुनः बोले- ” यहाँ से चारों दिशाओं में अपनी नजरें फैलाओ और देखो कि इस कृत्य से तुममें और असुरों में क्या अंतर बचा है, बल्कि नाम का.. जो वह करते हैं वही तुमने किया.. और वैसे ही लालच और महत्वाकांक्षा में..”

देवराज इंद्र, थाल समुद्र और सरस्वती नदी द्वारा कहे कथनों को सुनकर ऋषि मगस्तय समझ गए कि देवराज इंद्र ने यह सब लालच में किया है। इसलिए वो क्रोधित होकर बोले- “ मैं थाल समुद्र को श्राप देता हूँ कि वह अभी और इसी समय सूख जाएगा और यह मरु भूमि में परिवर्तित हो जाएगा, जिस प्रकार इसकी लहरें तट को छूती हुई नृत्य करती थी अब से उसी प्रकार इसकी रेतीली मिट्टी हवा के साथ नृत्य करेगी,
सरस्वती नदी जिस प्रपंच में आकर जमीन के नीचे चली गयी है अब वह वहाँ से कभी ऊपर नहीं आएगी, और मनुष्य इसमें स्नान कर अपने पूर्वजों का पिंड दान करते थे वह अब से बंद हो जाएगा, मृत आत्माओं के कल्याण के लिए देवता इसमें उतरना बंद कर देंगे,
और देवराज इंद्र तुम्हें जिन मेघों पर अहंकार है वो इस मरु भूमि में आते ही वाष्पित हो जाएंगे, वो कभी भी इसकी भूमि को स्पर्श तक नहीं कर पाएंगे और तुम अब कभी भी यहाँ बारिश नहीं करा सकोगे..”
इतना कहते ही समुद्र थाल रेतीले मैदान में परिवर्तित हो गया और सरस्वती नदी हमेशा के लिए उसी रेतीले मैदान में जमीन के नीचे कैद हो गयी और इंद्र के मेघ उस स्थान पर कभी नहीं आते। इसलिए वहाँ पर कभी भी इंद्र की पूजा नहीं होती। सरस्वती नदी के जमीन में समाने के बाद ही एक अन्य ऐसी पवित्र नदी की आवश्यकता हुई जो मृत आत्माओं का तर्पण कर उन्हें स्वर्ग में स्थान दिला सके। इसलिए भागीरथ स्वर्ग से गंगा नदी को लेकर आया।

लेखक:-
प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली,
®©

Language: Hindi
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