श्रद्धा,एक झूठा रिश्ता
श्रद्धा
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श्रद्धा नहीं जब अपनेपन से ,
श्रद्धा फिर क्यूँ ,अंजान डगर से ।
बनती नित एक, नई कहानी ,
फिर क्यों श्रद्धा, अश्रद्धेय दीवानी।
बनती नित एक नई कहानी,
फिर क्यों श्रद्धा,अश्रद्धेय दीवानी…
लाड-प्यार से पली थी वो जो,
माता पिता की थी एक निशानी।
भावुक होता सारा घर था ,
रोती थी जब,ले अंखियों में पानी ।
बनती नित एक नई कहानी,
फिर क्यों श्रद्धा, अश्रद्धेय दीवानी…
भले बुरे का ख्याल न रक्खी ,
जिद पर अड़ गई नीयत बेमानी ।
बिखर गए जब सारे रिश्ते ,
रोयी थी तब, दादी और नानी ।
बनती नित एक नई कहानी,
फिर क्यों श्रद्धा,अश्रद्धेय दीवानी…
बचपन भी कितना अजीब है ,
स्निग्ध प्रेम का सहचर था जो।
जुबां उनकी अब खामोश पड़ी है ,
निष्ठुर दिल, क्यूँ हुई सयानी…
निष्ठुर दिल, क्यूँ हुई सयानी…
निष्ठुर दिल, क्यूँ हुई सयानी…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )