शीर्षक: मुक्तिपथ पर पापा
शीर्षक: मुक्तिपथ पर पापा
आप क्यो चले गए मुक्तिपथ पर…
कितनी सहज व सरल गति से बिन बोले बिन कहे
ह्रदय आघात मेरी आँखों से रुक ही नही रहा
जब जब ह्रदय द्रवित होता हैं आंखे स्वयं ही
जल धारा रूप में मेरे दुख को उजागर करती हैं।
आप क्यो चले गए मुक्तिपथ पर…
मैं देखती रही देह आपकी शांत होते हुए
सूक्ष्म रूप महाशक्ति आगमन आप को ले जाते हुए
हम सब से दूर मुक्त कराकर सभी बंधनो से
मुक्तिपथ की और शांत, निश्चितं अवस्था में
आप क्यो चले गए मुक्तिपथ पर…
आपकी याद में आज भी द्रवित हैं हृदय
स्वप्न लोक में ही विचरण आपका
कभी देख पाते होंगे हमे दुख में दुखी होते हुए
चन्द्र रश्मियों के आगमन से लगता आप आएंगे
आप क्यो चले गए मुक्तिपथ पर…
मानव जीवन तो मात्र मकड़जाल सा बुना हैं
जिससे मुक्त होना ईश्वर रूप होना शून्य में मिलना
अनवरत ही मुक्ति दिला गई आपको अन्यय शक्ति
चिर निंद्रा में पावन धाम पहुंचाया आपको
आप क्यो चले गए मुक्तिपथ पर…
जीवन पानी का बुलबुला मात्र है जो न जाने कब
हवा की लहर का शिकार हो फुट जाते
जीवन भी वही रूप लिए है कब सांसे पूरी हो
शरीर यही छोड़ चलना हो किसी को पता ही नही
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद