शीर्षक – ऐ बहती हवाएं
ऐ बहती हवाएं ज़रा मंजिल का पता देती जाएं
यूं कठोर होकर बहने वाली हवाएं
जरा उसके चेहरे पर गौर तो करतीं
काश! तुम्हें मालूम होता,
दर्द उसके चेहरे से झलकता
माना की बेदर्द नहीं हो तुम,
लेकिन हमदर्द भी नहीं हो तुम
ये छायों के आंचल के बाद,
उसकी मंजिल थोड़ी दूर ही है,
बस इतना सा दिलासा तो देती जाएं
शायद दूर है राही अभी अपनी मंज़िल से
उसे अपने साथ तो लेती जाएं
मुश्किल रास्तों में, अनजान गलियों में
नहीं है कोई सहारा उसका,
अनजान रास्ता हैं, इंसान दर दर भटका है
हमदर्द ना बन सकीं,
मुसाफिर तो बनती जाएं
उसके सपनों को, उड़ान तो भरतीं जाएं
ऐ बहती हवाएं ज़रा मंजिल का,
पता देती जाएं
_ सोनम पुनीत दुबे