शीर्षक:मेरा प्रेम
मेरा प्रेम
सदैव तुम्हारे लिए
असीम सा व प्रगाढ़ ही रहेगा
अब इसे तुम सम्भाल नही पाए
शायद पैसो के गुरुर में या कहूँ कि
समय व्यतीत का खिलौना समझ
किस तरह से रगड़ा मेरा पूरा व्यक्तित्व
शायद समर्पित स्त्री होना ही मेरा
स्त्री होना अभिशाप हैं…
मेरे प्रेम को
सदैव ही छलनी किया तुमने
आकर्षक उपहार को छाना
मेरे व्यक्तित्व को पैसो की छलनी से
रह गया मेरा अगाध प्रेम छलनी के ऊपर
नही छन पाया मेरा प्रेम पैसो की धार में
और वो ले गया मेरी अस्मत को संग अपने
मैं रही ठगी सी अपने सीधेपन में और ये
स्त्री होना अभिशाप हैं…
मेरे प्रेम को
उसकी चालाकी समझ नही पाई
और वो आज भी सफेदपोश समझ
बेदाग ही समझ खड़ा है समाज में
क्योंकि पुरुष है वो शायद ईश्वर से ही
वरदान लिए ही मानो पैदा हुआ हो
अपनी जरूरत को आया था रहनुमा बन
और गया भी अपना छलावा छोड़ कर और ये
स्त्री होना अभिशाप हैं…
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद