शीर्षक:बेवजह ही पर रोशन दिवाली
बेवजह ही पर रोशन दिवाली*****
मेरी लेखनी में दर्द है गरीब दिए बनाने वाले का
करना उसका जिक्र जरूरी मुझे लगा
मेरी आदत सी बन गई है दर्द को उकेरने की
बेवजह ही सही पर मेरी लेखनी चलती हैं
बेवजह ही सही पर….
हर बार फिक्र झलकती हैं मेरे शब्दों में
जानती हूँ शायद न्याय नही हो पाता केवल शब्दों से
मेरी चाहत से बन गई है एक मुद्दे पर लिखने को
जानती हूं मैं तुम मुझे मेरे शब्दों से पहचान सकते हो
बेवजह ही सही पर….
हो नहीं सकते शब्दो से किसी के दर्द कम
फिर भी ना जाने क्यों चलती हैं सतत मेरी लेखनी
मानती हूँ कभी तो ध्यान जाएगा इस की ओर
तुम्हें अनदेखा नहीं करना है तभी न्याय दे सकते हो
बेवजह ही सही पर….
मेरी बेचैनियों में इसके बने हुए दिए ही हैं
क्या इसके घर भी इनसे रोशनी होगी
क्या हम दिए खरीद इसकी मदद कर सकेंगे
एक राहत सी मिलती इसको भी दिये बेच
बेवजह ही सही पर….
मेरी कविता में जिक्र आज इस गरीब कुम्हार का
करना जिक्र जरूरी हैं क्योंकि दिवाली करीब आई
मिलकर इसके घर को रोशन कर यही आस जगाई
मेरी आदत ही सही और चलती हैं लेखनी दर्द भरी
बेवजह ही सही पर….
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद