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22 Feb 2024 · 2 min read

कई युगों के बाद – दीपक नीलपदम्

कई युगों के बाद मैं फिर से
कविता लिखने बैठा हूँ ।
सदियों पहले फटे-पुराने
पन्ने खोल के बैठा हूँ ।
कितनी यादें बिखर गईं हैं
बीते युग की गलियन में ;
कितने सपने बिसरा बैठे
दो आँखों की कोठरियन में;
टूटे मोतियन की माला को
फिर से जोड़ने बैठा हूँ ।
सदियों पहले फटे-पुराने
पन्ने खोल के बैठा हूँ ।
जब बसंत था पास हमारे
हैं वो दिन हमको याद अभी,
यौवन की वो पहली वारिश
भूली नहीं है मुझे अभी ;
उस वरिश की मीठी तपन को
अनुभव फिर करने बैठा हूँ ।
सदियों पहले फटे-पुराने
पन्ने खोल के बैठा हूँ ।
मन के कैनवास पर कोई
आकर उकेरा था हमने,
फिर उस अपरिचित अक्श से
कोई नाता जोड़ा था हमने,
मदमाते रिश्तों की मदिरा को
फिर से पीने बैठा हूँ ।
सदियों पहले फटे-पुराने
पन्ने खोल के बैठा हूँ ।
इन पन्नों से झलक रहे हैं
वो भी दिन, जब हम बिछड़ गये ;
बन कर अश्रु टपक रहे हैं
रिश्ते जोकि बिखर गये ;
टूटे रिश्तों की पीड़ा से,
फिर से कराह उठ बैठा हूँ ।
सदियों पहले फटे-पुराने
पन्ने खोल के बैठा हूँ ।
याद है अभी वो शाम सुहानी
तुम सरि-तट मिलने आये थे,
कितने निश्चय किये थे हमने
कितने वादे उठाये थे ।
नये-पुराने सभी फैसले
कितनी जल्दी टूट गए,
सौ जन्मों का दम भरने वाले
दो ही पल में रूठ गये,
सारे वादे और फैसले
दरिया में डुबोकर बैठा हूँ ।
सदियों पहले फटे-पुराने
पन्ने खोल के बैठा हूँ ।
सपनों की बुनियादों पर
घरौंदा एक बसाया था,
एक-एक जर्रा, एक-एक कोना
पलकों से हमने सजाया था,
नियति की निर्मोही झटके से
ज्ञात नहीं वो किधर गया,
स्वप्न नींव पर टिका घरौंदा
ईंट-ईंट तक बिखर गया,
टूटे घर के ईंटों की चिनाई
फिर से करने बैठा हूँ ।
सदियों पहले फटे-पुराने
पन्ने खोल के बैठा हूँ ।
इन पन्नों को मेरे सिवाय
दूसरा कोई देख ना ले,
इन पन्नों से मेरा रिश्ता
और कोई करवट ना ले,
कह देना कि घर पे नहीं हूँ
ऐसा बोल के बैठा हूँ ।
सदियों पहले फटे-पुराने
पन्ने खोल के बैठा हूँ ।

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