शीर्षक:दर्द स्त्री का
🔅🔅दर्द स्त्री का🔅🔅
नहीं था पता उसे नही परख पाई थी
उसकी छल भरी चाल को
इच्छाओं का पिटारा जो खोल रख दिया था
अपनत्व से अपना सिर्फ अपना मान कर
चलती रही उसके बताए मार्ग पर साथी समझकर
मान करते हुए उसकी सम्पूर्ण इच्छाओं का
नहीं था पता उसे नही परख पाई थी
उसकी छल भरी चाल को
छली जाती रही हर मिलन पर उसी के द्वारा
बीतती उम्र में मानो भरोसा कर गलती कर बैठी हो
कोमल स्पर्श से लगा उसको शायद मिली प्रीत मुझे
नही था उसको आभास कि भरोसे को उसके
नहीं था पता उसे नही परख पाई थी
उसकी छल भरी चाल को
तार तार करेगा वही जिस पर कर बैठी थी भरोसा
नही मालूम उसको कि रौंदने तक रहेगा बस साथ
नजाने क्यों होता हैं अक्सर यही उसके साथ
नही कह पाती वह अपने मन की पीड़ा किसी को
नहीं था पता उसे नही परख पाई थी
उसकी छल भरी चाल को
क्यों नही उसकी पारखी नजर परख पाई उसको
कहाँ चूक रही बस वही पीड़ा का दर्द रहती हुई
स्त्री के हिस्से में तो सिर्फ और सिर्फ दर्द ही दर्द
न जाने कितनी असीम पीड़ाओं का समावेश
नहीं था पता उसे नही परख पाई थी
उसकी छल भरी चाल को
नही मिलता कभी जो भी चाह होती उसकी
जो भी जीवन मे आता बस अपनी चाह पूरी करता
रह जाती बस उसके पास ठगे जाने की पीड़ा
नही भूल पाती पीड़ा का दर्द ताउम्र बेचारी
डॉ मंजु सैनी
गाज़ियाबाद