शीत-ग्रीष्म ऋतु का प्रेम
शीर्षक – शीत-ग्रीष्म ऋतु का प्रेम
मन वैरागी सा हुआ,
देख के अद्भुत प्रीत।
पलट-पलट के देख रही है
गाकर विरह के गीत
अश्रु समेटे आँचल में,
बिलख-बिलख चीत्कार करे।
तोड़ न पाए प्रणय का बंधन,
देखो कैसे हुंकार भरे।।
रोक न पाए नैनों का सागर,
उमड़-घुमड़ के बरस गए।
बाट जोहते-जोहते नैना,
बूंद नेह की परस गए।।
लग के गले बिछड़ न पाए,
है कठिन घड़ी बिछोह की।
है उत्थान-पतन के जैसे,
लय-सुर में आरोह-अवरोह भी।।
पुनि-पुनि दर्शन को आती है,
करने मिलन शीत ऋतु।
भर-भर के खुद में समा लेता है,
आने को आतुर ग्रीष्म ऋतु।।
ये कैसा प्रेम है इनका,
विरह के खाली फूल झरे।
है प्रतीक्षा फिर मिलने की,
किंचित ढर्रे भूल परे।।
-शालिनी मिश्रा तिवारी
( बहराइच, उ०प्र० )