शाहीन बाग आंदोलन
क्या गारंटी है फिर से नहीं लौटेगा शाहीन बाग आंंदोलन
पाञ्चजन्य समाचार पत्र मे प्रकाशित लेख
दिनांक 26-मार्च-2020
शाहीन बाग का धरना खत्म हो गया। उसे खत्म होना भी था। इसे कोरोना ने खत्म कराया, सरकार ने या फिर प्रदर्शनकारी अगली बार नई ताकत के साथ लौटने के लिए खुद ही हट गए, इस विवाद में पड़ना फिलहाल अर्थहीन है। लेकिन यह आंदोलन अपने पीछे ऐसे बहुत सारे सवाल और मुद्दे छोड़ गया है जिन पर गहरा विचार करने के बजाए अगली बार का इंतज़ार करना समाज और देश के लिए बहुत महंगा पड़ सकता है।
भारत की संसद द्वारा पारित किए गए नागरिकता संशोधन विधेयक ‘सीएए’ के खिलाफ चलाया गया यह आंदोलन कई मायनों में आए दिन शुरू होकर अपने आप खत्म हो जाने वाले आंदोलनों से बहुत अलग था। यह शायद पहला मौका था जब किसी आंदोलन का चेहरा महिलाएं थीं और महीनों तक बनी रहीं। आखिरी दिन तक किसी को भी नहीं पता चला कि आंदोलन का नेता कौन है। शायद यही कारण था कि कई विश्लेषकों ने न केवल इसे मुस्लिम महिलाओं का एक स्वतःस्फूर्त गांधीवादी आंदोलन बताया बल्कि कुछ ने तो इसे महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन और नमक आंदोलन से भी बड़ा आंदोलन घोषित कर दिया।
जैसी उम्मीद की जा सकती थी, धरने के आरंभिक दौर में कई गैर मुस्लिम महिला संगठनों और युवा संगठनों ने भी इसमें उत्साह के साथ भाग लिया। लेकिन धीरे-धीरे यह पूरी तरह से मुस्लिम महिलाओं का आंदोलन होकर रह गया। स्वभाविक था कि इनके समर्थन में खड़े ऐसे संगठनों की कमी नहीं थी जो भाजपा और मोदी विरोध के नाम पर किसी भी आंदोलन को अपना समर्थन देने को तैयार रहते हैं। हालांकि सरकार और उसके समर्थकों की दलील थी कि नागरिकता कानून सीएए के नए संस्करण में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जो भारत के मुसलमानों की नागरिकता को चुनौती देता हो या उन्हें पहले से मिल किसी भी अधिकार को छीनता हो। लेकिन इसके बावजूद शाहीनबाग के समर्थन में ऐसे युवाओं की संख्या भी काफी बड़ी थी जो लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता में ईमानदारी भरी आस्था रखते हैं और विरोध को अपना लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं। यही कारण है कि शाहीनबाग के आंदोलनकारी तीन महीने तक धरना लगाए रहे। शाहीनबाग की ही तर्ज पर भारत के कई अन्य नगरों में भी इसी तरह के धरने चलते रहे।
शाहीनबाग के इस अध्याय का एक सार्थक पक्ष यह रहा कि इसने भारतीय लोकतंत्र की सेहत पर मुहर लगाने का काम तो जरूर किया है। यह घटना दिखाती है कि अपनी कई कमियों के बावजूद भारतीय लोकतंत्र में सही या गलत दोनों तरह के विरोध के लिए स्थान कायम है। दूसरे, यह देखना भी महत्वपूर्ण है कि सरकार ने भले ही इस मुद्दे पर किसी तरह का समझौता करने से इनकार कर दिया। लेकिन उसने बीच सड़क पर तीन महीने तक चल रहे धरने के कारण लाखों नागरिकों को होने वाली असुविधा खत्म करने के नाम पर न तो धरने को उखाड़ा और न सड़क खोलने के लिए पुलिस का इस्तेमाल किया।
अब जबकि शाहीनबाग का धरना उठ गया है तो ऐसे बहुत सारे सवाल और मुद्दे हैं जिन पर विचार किए बिना इस अध्याय को बीच में छोड़ देना न तो खुद आंदोलनकारियों का समर्थन करने वालों के हित में होगा, न सरकार के और न शेष समाज के। पहला सवाल यह कि इतने बड़े स्तर पर और इतना लंबा चलने वाले आयोजन के पीछे कौन लोग और कौन से संगठन काम कर थे और इसके लिए पैसा कहां से आ रहा था? दूसरा सवाल यह है कि पूरे आंदोलन में मुस्लिम महिलाओं को ही क्यों आगे रखा गया और पांच से दस साल की उम्र के बच्चों को नारेबाजी के लिए इस्तेमाल करने के पीछे लक्ष्य क्या था? तीसरा सवाल यह है कि भले ही प्रदर्शनकारियों के हाथ में तिरंगे झंडे तो थमाए रखे गए लेकिन वहां से दिए जाने वाल तकरीबन हर भाषण का विषय हिंदू विरोध क्यों रहा? और चौथा सवाल यह कि कहने को तो इस पूरे आंदोलन का लक्ष्य सीएए का विरोध करना था लेकिन इस आंदोलन के मंच से भारत के मुसलमानों को एक साथ मिलकर पश्चिमी बंगाल के ‘चिकन-नेक’ गलियारे पर कब्जा जमाने और भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों को भारत से अलग करने की अपीलों का क्या मतलब था?
पैसा कहां से आया ?
इस आंदोलन को चलाते रहने के लिए बाकायदा तम्बू-शामियाने, बैनर, नए तख्त और गर्म बिस्तर भी आते रहे और कड़़ाके की ठंड में आंदोलनकारियों और समर्थकों के लिए चाय और बिरयानी भी परोसी जाती रही। लेकिन किसी को न तो यह पता चलने दिया गया और न किसी के पास यह जानने की फुर्सत थी कि इसके लिए पैसा कौन खर्च कर रहा है। जिन पत्रकारों ने कोशिश की उनकी जरूरत एक स्मार्ट सरदार जी ने पूरी कर दी जिनके बारे में मशहूर हो गया कि इस आंदोलन ने उनके दिल को इस गहराई तक छू लिया है कि उन्होंने अपना फ्लैट बेचकर प्रदर्शनकारियों को बिरयानी खिलाने का फैसला कर लिया। लेकिन बहुत जल्द ही यह बात सामने आ गई कि डीएस बिंद्र नाम के ये सिख सज्जन घोर इस्लामी नेता असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ‘आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहाद उल मुसलमीन’ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी हैं।
आतंकवाद और अपराध से जुड़े धन के लेन देन पर नज़र रखने वाले प्रवर्तन निदेशालय और सुरक्षा एजेंसियों के हवाले से समाचार मिला कि शाहीन आंदोलन से जुड़े कुछ खातों में तकरीबन 160 करोड़ रुपए डाले गए थे और इसका एक बड़ा हिस्सा शाहीनबाग आंदोलन के दौरान थोड़े समय के भीतर ही कई नए खुले खातों में खिसका दिया गया। इनमें से बहुत सारे खाते खोलने वाली संस्थाओं के पते शाहीन बाग के ही निकले। कई खाते पैसे निकालने के बाद बंद भी हो गए। ऐसे में इन आरोपों को बल मिला कि गरीब मुस्लिम महिलाओं को धरने पर बैठने के लिए हर रोज़ पैसे दिए जाते थे।
क्या मायने हैं ‘शाहीन’ के ?
अगला सवाल पूरे शाहीनबाग आंदोलन को सीएए के नाम पर एक इस्लामी आंदोलन बनाने और इसे महिलाओं के आंदोलन के रूप में पेश करने की रणनीति से जुड़ा है। इस सवाल को समझने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप की राजनति में ‘शाहीन’ के अर्थ और महत्व को समझना बहुत जरूरी है। इस शब्द की सबसे पहली कल्पना एक ज़माने में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के एक सम्मानित कवि रहे मुहम्मद इकबाल ने की थी। जी हां, ये वही इकबाल हैं जिन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ गीत की रचना करके स्वतंत्रता आंदोलन में नई जान फूंक दी थी। लेकिन बाद में यही साहब घोर इस्लामवादी हो गए और भारत को तोड़कर मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान बनाने की मांग करने वाली बिरादरी के विचारनायक हो गए।
जब महात्मा गांधी समेत कांग्रेस ओर दूसरे नेताओं ने पाकिस्तान बनाने के विचार का विरोध किया तब इकबाल साहब ने अपने गीतों की एक किताब ‘बाल-ए-जिब्रील’ के एक गीत में मुस्लिम युवाओं के सामने एक बाज़ पक्षी ‘शाहीन’ की कल्पना पेश की थी। यह बाज़ आसमान में ऊंची उड़ान भरता है और अपनी तेज़ आंखों से जमीन पर अपने शिकार को पहचानता है और तेज़ी के साथ गोता मारकर उस शिकार को दबोच लेता है। मुसलमान युवाओं को यही ‘शाहीन’ बनने की प्रेरणा देते हुए वह उसे समझाते हैं कि उनका ‘शाहीन’ किसी गिद्ध की तरह पहले से मरे हुए शिकार का भोजन नहीं करता बल्कि खुद उसका शिकार करके खाता है। पाकिस्तान के समर्थन में अपने भाषणों में उन्होंने बार-बार स्पष्ट किया कि उनका ‘शाहीन’ भारत का मुसलमान युवा है और उसका शिकार भारत की एकता है जिसे तोड़कर उन्हें पाकिस्तान हासिल करना है।
पाकिस्तान बनने पर इकबाल को पाकिस्तान और इस्लाम के प्रति उनकी सेवाओं के लिए ‘अल्लामा इकबाल’ नाम दिया गया और उन्हें ‘मुफ़क्किर-ए-पाकिस्तान’ यानी पाकिस्तान के ‘राष्ट्रीय विचारक’ का वैसा ही ओहदा दिया गया जो भारत में महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ के रूप में दिया गया था। इकबाल ने अपने मूल गीत को ‘सारे जहां से अच्छा पाकिस्तान हमारा’ में भी बदल दिया।
‘शाहीनबाग’, पाकिस्तान और अल-कायदा का रिश्ता
सीएए के विरुद्ध चलाए गए आंदोलन को ‘शाहीनबाग आंदोलन’ का नाम देने और इसके लिए दिल्ली के शाहीन बाग को चुनने की कहानी भी बहुत अर्थवान है। दिल्ली के जसोला इलाके में 1981 में बरेली से आए कुछ मुस्लिम नेताओं ने स्थानीय गूजर परिवारों से जमीन खरीद कर एक बस्ती बसाई। इस बस्ती को पहले तो ‘अल्लामा इकबाल नगर’ नाम देने का प्रस्ताव था। लेकिन म्युनिस्पैलिटी द्वारा इसे अस्वीकार किए जाने के खतरे को देखते हुए इसे गैर सरकारी स्तर पर इकबाल के ‘शाहीन’ के नाम पर ‘शाहीन बाग’ प्रचारित किया गया। सरकारी रिकार्ड में ‘शाहीन बाग’ का असली नाम आज भी ‘अबुलफजल पार्ट-2’ के नाम से दर्ज है।
जेहाद में महिलाएं और बच्चे
अब सवाल आता है कि सीएए के विरोध में चलाए गए इस आंदोलन में मुस्लिम महिलाओं को क्यों आगे रखा गया और इसमें पांच से दस साल के बच्चों का क्यों इस्तेमाल किया गया? इसे समझने के लिए भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित युवा मुस्लिम आतंकवादी संगठन ‘सिमी’ के इतिहास को देखना होगा। 2008 में जब सिमी के दो प्रमुख नेताओं सफ़दर नागौरी और उसके भाई कमरुद्धीन को गिरफ्तार कर लिया गया तब उनके काम को चलाते रहने के लिए भारत में ‘शाहीन फोर्स’ का गठन किया गया। इसका एक बड़ा उद्देश्य भारत के इस्लामी आंदोलन में मुस्लिम महिलाओं को सक्रिय करना था ताकि वे अपने बच्चों को जिहाद के रास्ते पर लाने के लिए तैयार करें।
सिमी की गतिविधियों में पाकिस्तान के जेहादी नेताओं की भूमिका को खुद सफ़दर नागौरी ने एक समाचार पत्र को दिए गए अपने एक इंटरव्यू में खुलकर स्वीकार किया था। बाद में 2015 में अल-कायदा के नेता अल-जवाहिरी की पत्नी ने पाकिस्तान में ‘अल कायदा शाहीन वूमेन फोर्स’’ का गठन किया। इंटरनेट पर अपने वीडियो भाषणों में वह स्पष्ट कहती है कि इस फोर्स का काम भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्लिम औरतों को जिहाद में शामिल करना है ताकि वे अपने हर बच्चे के दिमाग में शुरू से ही यह बाद डाल दें कि बड़े होकर उसी को सलादीन बनना है और दुनिया को इस्लामी राष्ट्र में बदलना है। भारत में महिला ‘शाहीन फोर्स’ ने अपनी पहली कार्रवाई अप्रैल 2008 में हैदराबाद में की थी जब आतंकवाद के लिए पकड़े गए एक युवक मोहतासिम बिल्ला को वहां के साहिबाबाद थाने से छुड़वाने के लिए लगभग 40 मुस्लिम महिलाओं ने अपने बच्चों के साथ थाने पर हमला किया, पुलिस कर्मचारियों से हाथापाई की और तोड़फोड़ की। सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार सिमी और अल-कायदा मिलकर भारत के कई स्थानों पर महिलाओं के लिए प्रशिक्षण शिविर चला चुके हैं।
तिरंगे झंडे की आड़ और चीन का एजेंडा
इसलिए हैरानी की बात नहीं कि सीएए का मुद्दा उठने पर इसके आंदोलन में मुस्लिम महिलाओं को आगे किया गया। और जहां तक इन प्रदर्शनों में तिरंगे झंडे लहराने की बात है तो मीडिया और प्रोपेगेंडा कला का अध्ययन करने वालों के लिए यह एक गहरे अध्ययन का विषय है कि प्रदर्शकारियों के संयोजकों की यह नीति बहुत कामयाब रही। उनकी इस नीति ने जहां एक ओर टीवी कैमरों और अखबारों का ध्यान इस आंदोलन की ओर खींचा वहीं लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता में ईमानदारी भरी आस्था और उत्साह रखने वाले गैर मुस्लिम युवाओं और स्वयंसेवी संगठनों की ओर से भी इस आंदोलन को भरपूर समर्थन मिला।
यह बात अलग है कि जब इस आंदोलन को मिलने वाले बेतहाशा प्रचार और समर्थन से अभिभूत शरजील इमाम जैसे मुस्लिम नेताओं ने इसके मंच को भारत के टुकड़े-टुकड़े गैंग वाले आंदोलन में बदलने की घोषणा कर दी। उसने शाहीनबाग के मंच से जब भारत के मुस्लिम समाज को पश्चिमी बंगाल के चिकननेक गलियारे पर कब्जा करने और उत्तर-पूर्वी भारत के आठ राज्यों को भारत से तोड़ देने की अपील की तो अधिकांश गैर मुस्लिम समर्थकों और संगठनों के कान खड़े हो गए। वे लोग इस बात से हैरान थे कि चीन सरकार के इस पुराने एजेंडे को सीएए विरोध जैसे आंदोलन से क्यों जोड़ा जा रहा है। यही कारण है कि इस घटना के बाद शाहीनबाग आंदोलन और पाकिस्तान की ‘अल कायदा शाहीन वूमेन फोर्स’’ के रिश्ते दुनिया के सामने आ गए और यह आंदोलन एक विशुद्ध इस्लामी जेहादी आंदोलन बन कर रह गया।
फिलहाल चीनी वायरस कोविड-19 के नाम पर शाहीनबाग का आंदोलन स्थगित कर दिया गया है। लेकिन यह मान लेना भारी गलती होगी कि यह आंदोलन फिर से भारत की सड़कों पर लौट कर नहीं आएगा। जब तक चीनी वायरस का खतरा खत्म नहीं होता तब तक भारत की सुरक्षा एजेंसियों के साथ-साथ लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता में ईमानदारी से विश्वास करने वाले लोगों और संगठनों को भी गंभीरता से सोचना होगा कि क्या सीएए जैसे विषयों के नाम पर भारत को शाहीन-बाज़ी में विश्वास रखने वाली भारत विरोधी ताकतों के खेल का मैदान बनने देना चाहिए?