शालीनता की गणित
जो रात आज मैं रुक जाती
और कहो क्या कह पाते ?
दुशाला शालीनता की
क्या ओढ़े तुम रह पाते?
कितने सवाल, कितनी शंका,
याद है सीता मां और लंका?
काजल की उस कालिख को ,
बनने से पहले हि मिटा दें,
आओ हम तुम ये तय करलें
कितनी दूरी और बढ़ा लें?
कितनी सासें साथ में लेंगे ?
कितनी बार मिलेंगे खुलकर ?
कितनी दफा समा लोगे बाँहों में ?
दुनियादारी सब भूलकर!
कब – कब हम -तुम हंस पाएंगे ?
साथ में नीले नभ के नीचे,
कब निहारेंगे उदय होते सूरज को ?
बैठ किसी पर्वत के पीछेI
हमें तो कैसे भी जीना है !
हमें तो ऐसे ही जीना है !
रह मर्यादा की परिधि में
प्रेम की मदिरा को पीना है !