शाम
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शाम लिए जाती है मुझको
छोड़ दिन का हाथ,
छोड़ लालिमा का साथ
एक अंधकार में,
एक चन्द्रहार में
शाम लिए जाती है मुझको
ले जाती है विश्रांत में
और दिवस के सुखांत में
पूरे दिन की उठापटक पर
सोती हूँ आराम से।
अपलक नयनो में
सपने देने को
शाम लिए जाती है मुझको।
नए नए मन धागे बिनने को
आत्मग्रन्थियों के खुलने को
पूरे दिन को
एकबार समझने को,
शाम लिए जाती है मुझको।
कितनी सुंदर शाम है,
आशा है , आराम है,
हृदय ग्रंथियों के खुलने को
मन द्वार कपाट
जरा चिपकने को,
शाम लिए जाती है मुझको।
~माधुरी महाकाश