शापित रावण (लघुकथा)
रावण अपने पूर्वजन्म में भगवान विष्णु के द्वारपाल थे। एक श्राप के चलते उन्हें तीन जन्मों तक राक्षस कुल में जन्म लेना पड़ा था। एक पौराणिक कथा के अनुसार- सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार ये चारों ‘सनकादिक’ ऋषि कहलाते थे और देवताओं के पूर्वज माने जाते थे। एक बार ये चारों ऋषि सम्पूर्ण लोकों से दूर चित्त की शांति और भगवान विष्णु के दर्शन करने के लिए बैकुंठ लोक में गए। वहाँ बैकुंठ के द्वार पर ‘जय’ और ‘विजय’ नाम के दो द्वारपाल पहरा दे रहे थे। उन दोनों द्वारपालों ने ऋषियों को प्रवेश देने से इंकार कर दिया। उनके इस तरह मना करने पर ऋषिगण अप्रसन्न होकर बोले अरे मूर्खों! हम सब तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रूकती है। हम देवाधिदेव के दर्शन करना चाहते हैं। तुम लोग तो हमेशा भगवान के शरण में रहते हो। तुम्हें तो उन्हीं की तरह समदर्शी होना चाहिए। भगवान का स्वभाव जिस प्रकार शांतिमय है, तुम्हारा भी वैसे ही स्वभाव होना चाहिए। तुम जिद्द मत करो। हमें भगवान के दर्शन के लिए जाने दो। ऋषियों के कई बार कहने के बाद भी जय और विजय ने सनकादिक ऋषियों को बैकुण्ठ के अन्दर प्रवेश नहीं करने दिया था। तत्पश्चात क्रोध में आकर ऋषियों ने जय-विजय को शाप दे दिया कि तुम दोनों राक्षस हो जाओ। तब जय-विजय ने ऋषियों से प्रार्थना की और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगी। भगवान विष्णु ने भी ऋषियों से जय-विजय को क्षमा कर देने को कहा। तब ऋषियों ने अपने शाप की तीव्रता कम की और कहा कि तीन जन्मों तक तो तुम्हें राक्षस योनि में रहना ही पड़ेगा और उसके बाद तुमलोग पुनः इस पद पर प्रतिष्ठित हो सकोगे। इसके साथ एक और शर्त थी कि भगवान विष्णु या उनके किसी अवतारी स्वरूप के हाथों तुमलोगों का मरना अनिवार्य होगा।
यह शाप राक्षसराज, लंकापति, दशानन रावण के जन्म की आदि गाथा है। भगवान विष्णु के ये द्वारपाल पहले जन्म में हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु राक्षसों के रूप में जन्मे। हिरण्यकशिपु हिरण्यकरण वन नामक स्थान का राजा था जो कि वर्तमान में भारत के पश्चिमी भाग में माना जाता है। हिरण्याक्ष उसका छोटा भाई था जिसका वध वाराह ने किया था। विष्णुपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार दैत्यों के आदिपुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए। ‘हिरण्यकशिपु’ और ‘हिरण्याक्ष’। हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में न रात में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से न किसी शस्त्र से। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी ही पूजा करें। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया।
हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना तथा प्रताड़ना के बावजूद भी वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आए। भगवान विष्णु नरसिंह रूप में खंभे से प्रकट होकर हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेशद्वार की चौखट पर, जो न घर के बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात, नरसिंह रूप में जो न नर था न पशु, अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र था न शस्त्र, अपने जंघे पर रखकर जो न आकाश था न पाताल या धरती, अपने नाखूनों से उसका पेट फाड़ कर बध किया। इस प्रकार हिरण्यकशिपु अमर वरदानों के बावजूद भी अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त हुआ।
हिरण्यकशिपु की मौत बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के जानकीनगर के पास धरहरा में माना जाता है। इसका प्रमाण अभी भी यहाँ उपलब्ध है और प्रतिवर्ष लाखों लोग यहाँ होलिका दहन में भाग लेते हैं।
त्रेतायुग में ये दोनों भाई रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और विष्णु अवतार श्रीराम के हाथों मारे गए। तीसरे जन्म में द्वापर युग में ये दोनों शिशुपाल व दंतवक्त्र नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए थे। द्वापर युग में जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया, तब इन दोनों का वध श्रीकृष्ण के हाथों हुआ था।
शिशुपाल, वासुदेवजी की बहन तथा छेदी के महाराज दमघोष का पुत्र था। वह भगवान श्रीकृष्ण की बुआ का पुत्र अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण का फूफेरा भाई था। शिशुपाल के वध की कथा जितनी रोचक है, उससे भी ज्यादा रोचक है शिशुपाल के जन्म के समय घटित हुई घटनाएं। जब शिशुपाल का जन्म हुआ था तब वह तीन आँखों तथा चार हाथों वाले बालक के रूप में जन्म लिया था। उसके माता–पिता उसे बाहर ले जाने हेतु बहुत चिंतित हुए कि इस बालक को संसार के सामने किस प्रकार प्रस्तुत करेंगे। उन्हें यह भी डर था कि कहीं यह कोई असुरी शक्ति तो नहीं है। इस प्रकार के विचार करके उन्होंने इस बालक को त्याग देने का निर्णय लिया। तभी एक आकाशवाणी हुई कि “वे ऐसा न करें, जब उचित समय आएगा तो इस बालक के अतिरिक्त आँख एवं हाथ अपने आप ही अदृश्य हो जाएँगे अर्थात जब विधि के विधान द्वारा निश्चित व्यक्ति इसे अपनी गोद में बैठाएगा, तो इसके अतिरिक्त अंग गायब हो जाएँगे और वही व्यक्ति इसकी मृत्यु का कारण भी बनेगा जिसके स्पर्स से इसके अतिरिक्त अंग अदृश्य होंगे।” शिशुपाल के माता–पिता इस आकाशवाणी को सुनकर आशस्वत हुए कि उनका पुत्र असुर नहीं है, परन्तु दूसरी ओर उन्हें ये चिंता भी होने लगी कि उनके पुत्र का वध हो जाएगा और वह मृत्यु को प्राप्त होगा।
शिशुपाल का वध: महाभारत काल में राजकुमार युधिष्ठिर के राज्याभिशेक के समय, युवराज युधिष्ठिर ने सर्वप्रथम भगवान श्री कृष्ण को भेंट प्रदान की और उन्हें सम्मानित किया। तब शिशुपाल से भगवान श्री कृष्ण को सम्मानित होते देखा न गया और क्रोध से भरा शिशुपाल बोल उठा कि “एक मामूली ग्वाले को इतना सम्मान क्यों दिया जा रहा है जबकि यहाँ अन्य सम्मानीय जन उपस्थित हैं।” शिशुपाल ने भगवान श्री कृष्ण को अपमानित करना प्रारंभ कर दिया। शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को अपशब्द कहे जा रहा था। उनका अपमान किये जा रहा था परन्तु भगवान श्री कृष्ण अपनी बुआ एवं शिशुपाल की माता को दिए वचन के कारण बंधे थे, अतः वे अपमान सह रहे थे और जैसे ही शिशुपाल ने सौ अपशब्द पूर्ण किये और 101वां अपशब्द कहा, भगवान श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का आव्हान करके शिशुपाल का वध कर दिया।
इसप्रकार से जय-विजय को ऋषि श्राप के कारण तीन जन्मों तक राक्षस कुल में जन्म लेना पड़ा और बार-बार उनके अत्याचारों से त्रस्त होकर उनके अत्यचारों से पृथ्वी को मुक्त करने के लिए तथा उनका उधार करने के लिए भगवान विष्णु को अवतार लेना पड़ा। रावण का राक्षस कुल में जन्म और श्रीराम द्वारा रावण-बद्ध उसी कड़ी की एक कहानी है।
जय हिंद