शांत रस
हर बार तुम शांत चित्त से मेरी पीड़ा हर लेते हो।
कैसे हृदय दुखी मेरे को, हर्षित पुलकित कर देते हो?
विरह वेदना में डूबे,मेरे तन मन को,
चंचल चितवन कैसे कर देते हो?
मेरे घने तम को तुम दिव्य ज्योति से भर देते हो।
सजल नयनों से कैसे प्रियतम सारे अश्रु हर लेते हो?
पतझड़ सम मेरे जीवन को,प्रिय बसंत सम कर देते हो।
कैसे अमावस की रजनी को,स्वर्ण भोर से भर देते हो?
राह पड़े कंकड़ पत्थर को तुम झट ‘नीलम’ कर देते हो।
कैसे सूखे जल प्रपात को, नदी झेलम सम भर देते हो?
( २)
सुन, जीवन नहीं खत्म हो जाता,
जीवन साथी के जाने पर।
अविराम सफ़र है चलता रहता,
कभी मृत्यु कभी जन्म लेकर।
गिरते उठते पहुंचो पंथी,
जिंदगी नहीं आसां डगर।
क्षण भंगुर है जीव जीवन,
नहीं अमर कोई पृथ्वी पर।
आत्मा मुक्ति तभी पाती,
जब देह अंत होता जाता।
सद्कर्मों से मिलती मुक्ति,
बुरा कर्म जीव भटकाता।
नहीं देता मृत देह को ‘नीलम’
कोई भी रिश्ता आश्रय।
शेष फकत स्मृतियां रह जाती,
बस कुछ रिश्तों के हिय।
नीलम शर्मा