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3 Mar 2018 · 1 min read

शह और मात

मैं करता हूं अक्सर बातें, आंधी और तूफान की,
अपनी कलम नीचे रखकर सोचता हूं ईमान की।
तर्क, वितर्क, कुतर्क से मैंने सदा किए ही समझौते
आग लगी जब दामन पे, सोचने लगा इंसान की।

आग, पानी, फूल और खुशबू, कब कहां सार हुए,
जो अपना जीवन हार गया, उसके गले के हार हुए।
तुम तो मौजों पर लिखते आए, सदा गीत ही बैर के,
हमने मीठे दरिया पर लिखे, मन छंदों से प्यार हुए।।

तन, मन, धन की एक कहानी, देह अंजुली खाली है
सौरभ सुमन से रीता उपवन, मन मानस माली है
एक जुआरी हारा बाजी, कह चालों की शैतानी है
शह-मात के खेल में अक्सर, सबकी कुछ नादानी है।

-सूर्यकांत द्विवेदी

Language: Hindi
497 Views
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