शहनाई : दर्द का साज
क्या अजब साज़ थी शहनाई ,
दिल के तारों को जो झनझनाती थी ।
खुशी हो या गम का समां हो ,
दिलों के तार से तार मिलाती थी ।
किसी दुल्हन की विदाई की बेला में ,
आंसुओं के संग आशिषों के स्वर घोलती थी ।
हमारी भारतीय संस्कृति / सभ्यता व् ,
शास्त्रीय संगीत के सर का ताज होती थी ।
मजहब को बांटना तो वो जानती ना थी ,
हिंदू – मुस्लिम सबकी शादियों में शामिल होती थी।
जब से हमारे देश में पश्चमी सभ्यता आई ,
सामाजिक समारोहों में इसकी उपस्थिति गौण हो गई ,
अब हमारी शहनाई जाने कहां गुम हो गई ।
शहनाई वादकों की भी रोजी रोटी छीन गई ।
कौन बनाएगा इसे वापस महफिलों की रौनक ,
कौन देगा इसे इसकी पहचान ?
जो भारतीय समाज की जान होती थी ।