शब्द
शब्द ही गूँजा जब सृष्टि का
उद्भव हुआ
शब्द ही हँसा था जब माँ के
आँचल खेला
मेरे प्रथम रूदन में भी शब्द ही
सिसका
किलकारी बन शब्द ही मुख से
फूटा मेरे
प्रशंसा में भी शब्द बना था तासीर
कलेजे की
ठण्डक बन शब्द शीतल हो गया
बर्फ सा
जमीं पर घुटनों से चलने से ले कर
गोद तक शब्द
बचपन भी बीत गया यूँ ही शब्दों से
जूझते जूझते
यौवन की दहलीज पर पैर रखा जब
उलझता गया
शब्दों के जाल में मैं बरबस यूँ
फँस गया
प्रेम की मरीचिका में भी शब्द ही
साथ थे
मुलाकातों के आलिंगन में शब्द
बने आनंद
तब से अब तक प्रेयसी के कसनी बद्ध
से आज तक
शब्दों की डग पर बढ़ता ही मैं चला
आ रहा हूँ