शक्तिशालिनी
तेरी चूड़ियां बोलती है जितनी
काश ! उतना तुम बोल पाती ।
तुम लट सुलझाती हो जितनी
काश ! उतनी खुद सुलझ पाती ।
लक्ष्मीरूप तुम्हें ये दुनिया बताती
क्यों न दुर्गा तुम स्वयं बन जाती ।
बिना किसी सुरक्षा के भरोसे
अपनी रक्षा तो स्वयं कर पाती ।
तुम रूई के फाहे सी कोमल
आखिर क्यों दब जाती इतनी ?
तुम भी बराबरी के लिए हो
नही दबने के लिए हो बनी ।
एक जान बचाने के सवाल में
बचा सकती जान हरहाल में ।
ना चाहो पूजी जाए देवीमाता
चाहे तुम बस नारी अस्मिता ।
तुम तो प्रेम,सम्मान की प्यासी
ना चाहे बने महारानी ना दासी ।
जग की सतत् संतति पालनी हो
वो तुम्ही शक्ति शक्तिशालिनी हो ।
तुम हो धैर्य धरती धरती के जैसे
कष्ट सह लेती हो तुम कैसे-कैसे ।
तुम परी परिपूर्ण शक्ति सबला
आश्रय,आरक्षण क्या करेंगे भला ।
अब अपनी शक्ति रही हो पहचान
नित बना रही नये-नये कीर्तिमान ।
~०~
मौलिक एवं स्वरचित :रचना संख्या- ०९
जीवनसवारो,मई २०२३.