वक़्त रेत सा…
वक़्त रेत सा…
यूँ हाथों से फिसलता चला गया;
बंद मुट्ठी में भी कहाँ
रोके वो रुक पाया l
वो मुलाकतों से पैहले
की जो मुलाकतें थी ;
वो इक झलक की चाहत,
वो जुनूँन,
बस यूँ समझ लो …
बिन बारिश के बरसातें थीं l
यूँ तो यादें भी तेरी,
कुछ कम नायाब नहीं ;
पर होते जो तुम संग,
तो वक़्त पर अपना राज होता l
वो इक पल जिसमें,
सितारे हमारे हक़ में होते;
हो जाती रूहानी…
सारी कायनात,
बाहों में तेरी हम होते ;
जो होता मुमकिन,
उस वक़्त को हम वही रोक लेते l
पर वक़्त रेत सा…
“दीप” हाथों से फिसलता चला गया।।
कुलदीप कौर “दीप”