व्यथा
व्यथा
इल्ज़ामों की बोरी
थका मन, बोझिल आँखें
एक प्रेम भरा शब्द सुनने को तरसते कान,
समय की तपिश से झुलसी आत्मा
कटु वचन,अधूरा सत्य
क्या यही नियति है हमारी
बँध जाऊँ तुम्हारी खिची रेखाओं के आकड़ों में,
और अपना समर्पण भूल जाऊँ तुम्हारी तरह।
कालचक्र के घेरें में फ़सकर
एक हल की ही भाँति ही जोता गया ,
कितने अपने छूटे,कितने सपने छूटे
सुबह की लालिमा छूटी,
बचपन का चुलबुलापन गया,
वो रोना गया, वो कोना भी गया
किसी को याद भी में या सब भुला ही दिया गया ।
प्रश्नवाचक चिह्न ही हूँ मैं
मेरी कोई अब पहचान नहीं
अपने अपने मतलब से तौले सब मुझसे अब कोई काम नहीं ।
बहुत तेज गति से भागता शहर है बाबू
जो खड़े रहोगे दुनिया सलाम करेगी
जो थक के बैठ गए
कहाँ फ़ेक दिए जाओगे
कुछ पता नहीं ।
तेज आवाज़ों के नीचे दबते शब्द
अभी भी सिसक रहें है,
अंधेरों में ढूँढ रहें है अपने होने के निशाँ।।
डॉ अर्चना मिश्रा