वो मेरी हस्ती मिटाने को चला
वो मेरी हस्ती मिटाने को चला
फूंक से पर्वत उड़ाने को चला
यूँ नहीं था ख़ास मक़सद चलने का
सिर्फ अपनी ज़िद निभाने को चला
पैरहन उजला पहनकर, देखिए
दाग़ मुझपर वो लगाने को चला
आसमां छूने की ख़्वाहिश में कहीं
वो जमीं अपनी गँवाने को चला
झूठ के साये में रहता है मगर
साँच का परचम उठाने को चला
माँगकर चिड़ियों से छोटे पंख वो
आसमां पर हक़ जताने को चला
कोई समझाए कहे ‘माही’ उसे
बेवज़ह झगड़े बढ़ाने को चला
माही / जयपुर