वो दिन भी क्या दिन थे
वो दिन भी क्या दिन थे
ना मतलब की यारी थी
और ना ही मतलबी यार थे
आज जाना बचपन सच में कितना नादान
और कितना भोला था
मानो कोई अबोध बालक
सुबह के तमाम झगड़े और
सभी शिकायतों के निपटारे
शाम होते ही कन्धों में हाथ डालकर
पल भर में हो जाया कराते थे
आज़ न वो यार हैं
और ना ही वो सुनहरे नादान पल
होश संभालते ही जितने भी यार मिले
सब के सब मतलबी यार निकले
मतलब साधते ही
पल भर में जुदा हो गए
काश, बचपन फिर से लौट आए
गांव की माटी की सुगंध में नहा कर