वो इँसा…
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वो इँसा लहलहाती
कड़ी धूप को पीठ पे
लादकर नंगे पाँव निकलता है
अपने बच्चो के लिए
घर में जरासा शाम का
उजाला लाने के वास्ते..!
वो इँसा सभी मौसम की
भूख को खेत में उगाता है
अपने पेट की चमड़ी पीठ
को चिपकने तक वो भूख
को बर्दाश्त करता है…
कुछ फसलें सलामती से
हजारो घर तक पहुंचने के वास्ते..!
इनके मैले कपडे
पसीनों में तरबतर
गीले ही रहते है हर वक़्त..
और फैलती है खुशबु
पसीनों की इन हवाओँ में..
बस बेरहम कुदरत नही
जानती है इनके आँखों
में गीले अश्क़ की नमी को
जो अब उम्र के पड़ाव में
सुख चुकी है…
जैसे कोई कड़ी धूप में
ज़मी सुख जाती है…
वो इँसा अब की
चिलचिलाती धुप में
भी जिंदगीया बो रहा है..!
®© ‘अशांत’ शेखर
17/05/2023