“वेश्या का धर्म”
पाटलिपुत्र के चक्रवर्ती सम्राट अशोक की अनूठी कहानी थी,
नगरवधू विंदुमती एक वेश्या की कहानी थी।
जो दोनों के बीच की,
एक घटना थी,
बात हल्की नही,
बड़ी गहरी थी।
पाटलिपुत्र में अशोक गंगा के, किनारे खड़ा था,
भयंकर बाढ़ आई थी, भयभीत वो खड़ा था।
मन ही मन सोच रहा था क्या गँगा उल्टी बह सकती है,
कि गंगा अपने स्रोत की ओर मुड़ सकती है।
तभी वेश्या अशोक के पास आ गई,
उसने कहा आदेश करें, और हँसने लग गई।
वेश्या बोली हाँ मैं उल्टी गंगा बहा सकती हूं,
अशोक चौंका, कौन सी कला है, जो ऐसा कर सकती हो।
उसने कहा मेरी निजता का सत्य,
मेरे जीवन का सामर्थ्य और सत्य,
आँखे बंद कर जपने लगी,
सम्राट खड़ा था गंगा उल्टी बहने लगी।
सम्राट वेश्या के, चरणों मे गिर पड़ा,
क्या वेश्या का भी कोई धर्म है भला।
तू शरीर बेंच रही है, सौंदर्य बेंच रही है,
इससे घटिया कोई व्यवसाय हैं नही।
विंदुमति बोली मेरी शिक्षा में गुरु से यही मिला,
केवल एक सूत्र, मोक्ष के लिए मिला।
चाहे धनी आये,
चाहे गरीब आये,
चाहे शुद्र आये,
चाहे ब्रह्मण आये।
चाहे सुंदर पुरूष आये,
चाहे कुरूप आये,
चाहे जवान आये,
चाहे रूग्ण आये।
समभाव रखा, किसी से ना द्वेषः किया, ना आसक्ति किया,
ना लगाव दिखाया, ना मोह किया,
ना खुश हुई, ना दुख प्रकट किया।
अपना जीवन कर दिया,
दूसरों पर समर्पित,
वेश्या भी नारी है,
हुई जो असीमित।
पुरुष प्रेम भी शर्तों पर करता है,
जबकि प्रेम बंधन नही मुक्ति है,
कौन कहता है वेश्या का धर्म नही,
एक नारी मैं भी हुँ, मुझमे क्या मर्म नही।।
लेखिका:- एकता श्रीवास्तव✍️
प्रयागराज