वेदना के अमर कवि श्री बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी*
वेदना के अमर कवि श्री बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी*
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डॉक्टर छोटे लाल शर्मा नागेंद्र ने रूहेलखंड के 17 कवियों का एक संकलन इंद्रधनुष नाम से बुद्ध पूर्णिमा 26 मई 1983 को सामूहिक प्रयासों से अंतरंग प्रकाशन ,इंदिरा कॉलोनी ,रामपुर के माध्यम से प्रकाशित किया था । इसमें एक कवि श्री बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी भी थे । कवि परिचय में अंकित है : जन्म अश्विन शुक्ल नवमी संवत 1979 , जन्म स्थान सिरसी, मुरादाबाद , 1 जुलाई 1982 को 60 वर्ष पूरे कर के प्रधानाध्यापक पद से सेवा मुक्त , प्रकाशित कृति “प्रवासी पंचसई” ।।
कवि के कुछ गीत, गीतिका और मुक्तक इस संग्रह में संग्रहित हैं। इससे पता चलता है कि कवि का मूल स्वर वेदना से भरा हुआ है । यह स्वाभाविक है । वास्तव में बहुत पहले ही यह लिखा जा चुका है कि “वियोगी होगा पहला कवि ,आह से उपजा होगा गान”
प्रवासी जी संग्रह के अपने प्रथम गीत में लिखते हैं :-
तुम यदि दर्श मुझे दे देते ,तो यह जन्म सफल हो जाता
मैं जर्जर टूटी तरणी-सा ,रहा डूबता-उतराता नित
लख बलहीन प्रबल लहरों ने ,दिया संभलने मुझे न किंचित
तुम यदि कुछ करुणा कर देते ,तो भव-तरण सरल हो जाता ( प्रष्ठ 41 )
थोड़ी सी इसमें रहस्यात्मकता तो है लेकिन फिर भी संकेत जीवन के उदासी और टूटन भरे क्षणों का स्मरण ही हैं।
वियोग की वेदना कवि के गीतों में बार-बार लौट कर आ रही है । एक अन्य गीत है:-
जो मैं तुम को खोज न पाऊं ,इतनी दूर चली मत जाना ( प्रष्ठ 43 )
इसमें भी कवि का प्रेयसी के प्रति अनुराग प्रकट हो रहा है तथा वियोग की छाया से लेखनी ग्रस्त है ।
जब कवि एक अन्य गीत लिखता है और उसमें भी वह उदासी के ही चित्र खींचता है ,तब इसमें कोई संदेह नहीं रहता कि गीतकार वेदना का कवि है । उसके हृदय में कोई कसक है जो उसे निरंतर लेखन-पथ पर अग्रसर कर रही है :-
तुम तो मंगल मूर्ति प्राण हो ,मुझको ही विश्वास न आया (प्रष्ठ 44 )
उपरोक्त पंक्तियों में जीवन के पथ पर जो अधूरापन रह जाता है ,उसका ही स्मरण बार-बार किए जाने की वृत्ति मुखर हो रही है।
गीत के साथ-साथ कवि ने गीतिका-लेखन में भी और मुक्तक लेखन में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है । एक गीतिका आशा की किरण का द्वार खोलती है लेकिन वहां भी वातावरण उदासी से भरा हुआ है । परिस्थितियां प्रतिकूल हैं और वियोग का मौसम ही चलता हुआ दिखाई दे रहा है ।
गीतिका की प्रथम दो पंक्तियां इस दृष्टि से विचारणीय हैं:-
कैसे ग्रंथि खुलेआम मन की ,तुम भी चुप हो हम भी चुप
कौन चलाए बात मिलन की ,तुम भी चुप हो हम भी चुप (प्रष्ठ 47 )
एक मुक्तक कवि की प्रतिभा के प्रति ध्यान आकृष्ट कर रहा है । मुक्तक इस प्रकार है :-
स्वर्णिम घड़ियाँ जो अनजाने ही बीत गईं
उनकी जब सुधि आती है तो रो लेता हूं
चलते-चलते जब अश्रु बहुत थक जाते हैं
देने को कुछ विश्राम उन्हें सो लेता हूं
(प्रष्ठ 48 )
उपरोक्त मुक्तक ही यथार्थ में कवि की लेखनी का स्थाई प्रवाह बन गया है । मानो कवि वेदना के भंवर से बाहर निकलना ही नहीं चाहता । उसे वेदना में ही जीवन व्यतीत करना या तो आ गया है या फिर वह उस वेदना में ही अपने जीवन की पूर्णता का अनुभव कर रहा है । ऐसे कवि कम ही होते हैं जो संसार के राग और लोभों के प्रति अनासक्त रहकर लगातार ऐसी काव्य रचना कर सकें , जिसमें एक सन्यासी की भांति समय आगे बढ़ता जा रहा है और कवि उस यात्रा को ही मंगलमय मानते हुए प्रसन्नता से बढ़ता चला जा रहा है । श्री बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी एक ऐसी ही अमृत से भरी मुस्कान के धनी कवि हैं। आप की वेदना निजी नहीं रही ,वह सहस्त्रों हृदयों की भावनाएं बनकर बिखर गई और लेखनी सदा-सदा के लिए सबके अपने भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो गई । अनूठी लेखनी के धनी कवि बहोरन सिंह वर्मा प्रवासी को शत शत नमन ।।
प्रवासी जी की एक बड़ी विशेषता यह भी रही कि उन्होंने सदैव विक्रम संवत को सम्मान देते हुए अपनी जन्मतिथि हर जगह जो उन्हें वास्तव में पता थी , वह सच – सच आश्विन शुक्ल नवमी विक्रम संवत 1979 ही बताई। वह कभी अंग्रेजी तिथि के फेर में नहीं पड़े।
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समीक्षक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451