*वृद्धाश्रम*
वृद्धाश्रम कोई जगह नहीं है ।
यह एक कब्र है ।
जहां दफ्न है,
पिता की दिन रात की मेहनत,
वो प्रेम जो अतुलनीय था,
अपनी इच्छाओं को दरकिनार करते हुए बच्चों के हर ख्वाब को पूरा किया ।
वहां दफ्न है,
पिता की टूटी हुई वो लाठी जिसे वो बुढ़ापे में काम आने के लिए संजोया था ।
वहां दफ्न है,
मां की ममता हां वही ममता जो अनंत है
बचपन में जब बच्चा बिस्तर गिला कर देता था तो मां उसे सूखे पर सुला कर खुद गीले बिस्तर पर सो जाती थी।
चाहे उसे फिर नींद लगी हो या नहीं रात इस सुकून में खुश होकर बीतती थी की बच्चा आराम से सोया ।
वहां दफ्न है,
पिता का प्रेममय विश्वास को अपने झूठे जाल में फंसाकर पिता से सबकुछ अपने नाम करा लेने का पाखंड ।
ये सब ही तो है वृद्धाश्रम में रह रहे लोगों का सच ।
लेकिन ये बच्चे भूल गए है,की उनके भी बच्चे है ।
जितना लाड़ वो अपने बच्चों से करते है वही लाड़ उनके मां बाप ने भी किया था उनके साथ ।
ये भूल गए सारे किए का फल यही मिलता है ।
वो भूल गए की कभी घड़ी की सुई 12 बजाती है तो कभी 6 ।
इंतजार करो ।
✍️ प्रियंक उपाध्याय