विषय – “माँ”
माँ कोख तेरी स्वयं में पूर्ण ब्रह्मांड है
असीम शक्तियों से करती तू नवनिर्माण है
करती प्रकाशित हमें, होकर तू प्रज्ज्वलित
तेरी जड़ों और छावं से होते हम नित पल्लवित
बलखाती हुई सी तू तो एक निःस्वार्थ नीर है
सृस्टि को सुगन्धित करती हुई मद्धिम समीर है
माँ मेरे सभी जिज्ञासाओं की तू ही संतुष्टि है
संतान की क्षुधा की तेरे करों में ही पूर्ण तुष्टि है
मुझ पर दैहिक या दैविक कैसी भी बला है
तेरे ममता के आंचल से ही सब कुछ टला है
तुम गुरु, सिंचित किया जीवन कला के ज्ञान से
मेरे अस्तित्व का होना संभव है तेरे सर्वस्व दान से
मेरे लिये तू कर्ण भी, बालि भी और दधीचि दानी है
मेरी सामर्थ्य में नहीं, होना उऋण, हम ऐसे ऋणी हैं
आरती ओझा
लखनऊ