*विषमता*
तुम आसमाँ के हो परिंदे,
मैं रहगुज़र की धूल हूँ,
उड़ना तो है दोनों की फ़ितरत –
मगर कितनी है अलग दोनों की क़िस्मत –
एक को सितारे तलक उड़ना है,
दूजे को इसी धरती पर गिरना है –
तुम सागर की गरजती लहर हो,
मैं शांत झील की धारा –
जल का अथाह स्रोत हो तुम,
में घिरी हुई सीमाओं में,
पर मैं थके पथिक की प्यास बुझाऊँ
और तुम्हारा
बूंद-बूंद है खारा –
तुम तेज हवा के झोंके हो,
मैं ख़ुशबू सुर्ख़ गुलाब की,
हम और तुम यदि मिल जाएँ –
हम धरती-अम्बर महकाएँ –
तुम प्रचंड धूप हो सूरज की,
मैं चाँदनी बरसाती हूँ –
तेरी ज्योत से जल कर भी मैं
शीतलता फैलाती हूँ –
फिर ख़त्म करें हम यह मतभेद –
इक दूजे के पूरक हैं हम,
अस्तित्व नहीं एकाकी अपना,
अपनी-अपनी क्षमताओं पर
फिर करना क्यूँकर खेद ?