विश्व काव्य दिवस पर
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केवल गंभीर पाठकों, जिज्ञासुओं, खोजियों और शोधार्थियों के लिए…
विश्व काव्य-दिवस पर काव्य के समस्त प्राचीन आचार्यों और श्रेष्ठ कवियों को स्मरण करते हुए आपको हिन्दी/संस्कृत के लुप्त और गुप्त संसार में ले चलता हूँ । मगध के राजा शिशुनाग ने ये राजाज्ञा जारी की थी कि ”उसके अन्त:पुर में कोई भी ट, ठ, ड, ढ, ऋ, ष, स, ह इन आठ वर्णों का उच्चारण नहीं करेगा” और शूरसेन के राजा कुविन्द ने कटुसंयुक्त अक्षर के उच्चारण पर प्रतिबन्ध था। कुन्तलदेश में सातवाहन राजा ने आज्ञा दे रखी थी कि राजमहल में केवल प्राकृत बोली जाए। उधर उज्जयिनी में राजा साहसांक ने अपने अंत:पुर में केवल संस्कृत के प्रयोग का राजनियम लागू किया हुआ था। तो सबसे पहले हिन्दी की यात्रा को समझें—
”भाखा बहता नीर” की उक्ति को चरितार्थ करते हुए कैसे आप हिन्दी तक पहुंचे हैं. देववाणी–वैदिक संस्कृत–लैकिक संस्कृत—-पालि—प्राकृत (पैशाची, मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री))—अपभ्रंश—अवहट्ट—-पुरानी हिन्दी—(डिंगल, पिंगल, अवधी, बृजभाषा, खड़ी बोली)—-हिन्दी.
तथाकथित विद्वानों में इस यात्रा को लेकर भी मतभेद है लेकिन जो दूसरे के मत से भेद न करे वो विद्वान भी कैसा? लेकिन केवल इतना नहीं—इसके अलावा अरबी फारसी, उर्दू, पुर्तगाली, अंग्रेजी, बांग्ला जाने कितनी भाषाओँ के शब्दों को हिन्दी पीकर पचा चुकी है। पर अभी बात करेंगे ‘वर्ण-कौतुक’ और ‘अलंकार कौतुक’ की अर्थात काव्य में ऐसा वर्ण-प्रयोग, अलंकार-प्रयोग कि मन कौतुक, आश्चर्य, विस्मय से भर जाए. इसका प्रारंभ तो संस्कृत आचार्यों ने ही शुरू कर दिया था मगर बाद के कवियों ने भी इस परम्परा को खूब आगे बढ़ाया. जैसे संस्कृत का एक श्लोक देखिये, जिसमें सभी तैंतीस व्यंजन हैं–
क: खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:।
तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषाम्।।
”अर्थात् वो कौन है जो पक्षियों के प्रति प्रेम रखने वाला, शुद्ध बुद्धि वाला, दूसरे का बल को हरने में निपुण, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल, निडर और महासागर का सर्जक है? जिसे शत्रुओं से भी आशीर्वाद प्राप्त हुए हैं।”
यहाँ समझने वाली बात ये है कि ये केवल जोड़-तोड़ नहीं बल्कि अर्थपूर्ण काव्य है. हिन्दी में काशिराज की एक कुण्डली देखिये–
”केकी खग घन लखिनचे छाजे झिल्ली बैन
तट ठठि डिढ चढ़ि गण नदी तत्थ उदधि रही ऐन
तत्थ उदधि रही ऐन ढपे फबि भू मग सगरे
जाय रले वर तियनि पथिक नर परिहरि दगरे
आशिष सहित हुलास लहि विरहिन हियरे की
औरे ओप अमंद भई जब कूके केकी
इस कुण्डलिया में हिन्दी के सभी ‘स्वर’ और ‘व्यंजन; का प्रयोग हुआ है. हिन्दी में संभवतः अन्य किसी कवि ने ऐसी रचना नहीं की। संस्कृत में महाकवि भारवि का एक श्लोक देखिये, सम्पूर्ण श्लोक की रचना केवल एक व्यंजन “न” से की गई है–
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नाना नना ननु।
नुन्नोSनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नन्नुनन्नुनुत्।।
अर्थात्-अरे अनेक प्रकार के मुख वालो! निकृष्ट व्यक्ति द्वारा बिद्ध (घायल) किया गया पुरुष, पुरुष नहीं है और निकृष्ट व्यक्ति को जो बिद्ध करता है वह भी पुरुष नहीं है, स्वामी के अबिद्ध होने पर बिद्ध पुरुष भी अबिद्ध ही है और अतिशय पीड़ित व्यक्ति को पीड़ा पहुँचाने वाला व्यक्ति निर्दोष नहीं होता”
हिन्दी में इसी प्रकार का एक प्रयोग देखिये जिसकी रचना केवल एक व्यंजन “न” से की गई है–
नोने नैनी नैन ने नोने नुने ननून
नानानन ने नानू ने नाना नैना नून
नोने नैनी अर्थात, सलोने लावण्ययुक्त नयन वाली अर्थात ‘सुनयना” पूरे पद का अर्थ, शब्द-विस्तार की वजह से नहीं लिख रहा ताकि अधिक से अधिक सारगर्भित रह सकूँ फिर भी किसी की आगे आने वाले किसी भी श्लोक, छंद या दोहे के अर्थ के प्रति औत्सुक्य हो तो इन्बॉक्स में मांग लें। ऐसा ही केशवदास का एक अन्य पद देखें जिसकी दोनों पंक्तियाँ बस एक-एक व्यंजन से रचित है —
केकी केका की कका कोक कीकका कोक
लोल लाली लोले लली लाला लीला लोल
अर्थात-”मोर की ध्वनि क्या है, चक्रवाक और मेंढकों की ध्वनि भी क्या है उस नायिका के समक्ष जो पुत्र प्रेम से भरी घूमती रहती है और उसी की चंचल लीलाओं पर मुग्ध रहती है”
केशवदास तो छंदशास्त्र की पराकाष्ठा हैं। उनका एकाक्षर का एक ऐसा प्रयोग किया है जिसने अर्थवत्ता को इतने वैचित्र्य से सम्हाला है कि विस्मय भी विस्मय से दांतों में ऊँगली दबा ले—
गो गो गं गी अ आ श्री ध्री ह्री भी भा न
भू वि ष स्व ज्ञा द्यौ हि हा नौ ना सं भं मा न
अर्थात–”सूर्य चन्द्र गाय श्रीगणेश सरस्वती श्रीविष्णुश्री ब्रह्मा श्री लक्ष्मी जी को धारण कर लज्जा और भय न कर, इससे पृथ्वी और आकाश तुझे अपने लगेंगे, तेरा हृदय प्रकाशित होगा, तुझे नया कष्ट न मिलेगा और तू तेरी मृत्यु न होगी.”
महाकवि माघ ने एक ऐसे ही पद की रचना की है जो बस दो व्यंजन से मिलकर बना है–
भूरिभिर्भारिभिर्भीभीराभूभारैरभिरेभिरे।
भेरीरेभिभिरभ्राभैरूभीरूभिरिभैरिभा:।।
अर्थात् ”भूमि को भी भार लगे ऐसे भारी, वाद्य यन्त्र जैसी आवाज निकालने वाले और मेघ जैसे काले भयहीन हाथी ने अपने शत्रु हाथी पर आक्रमण किया।”
हिन्दी में ऐसा ही एक अद्भुत प्रयोग देखिये –
हरि हर हर हरि हेरि ही ररि ररि रूरैं रोहि
हारि हारि रही राहहीं हरै हार हरि होहि
या
तूँती तातत त तातैं तोते ताते तत
लालो लीला ल लली ललो लाल ले लल्ल
इसी तरह के कई प्रयोग संस्कृत में मिलते हैं जहाँ प्रत्येक पंक्ति केवल एक व्यंजन से निर्मित है–
जजौजोजाजिजिज्जजी तं ततोSततितताततुत
भाभोSभीभाभिभूभाभू रारारिररिरीरर:
अर्थात ”बलराम जोकि एक महान योद्धा और महायुद्धों के विजेता हैं, शुक्र और बृहस्पति की तरह देदीप्यमान हैं, घुमते हुए योद्धाओं के कालरुपी, अपनी चतुरंगिनी सेना के साथ, शत्रुओं का सामना करने युद्धभूमि में शेर की तरह जाते हैं”
संगीत के सात स्वरों के प्रयोग का एक विलक्षण पद्य-प्रयोग भारतेंदु जी ने किया है–
धनि धनि री सारिस गमनी
गरिमध पसरी सैम मनी सारी रेसम सनि सरिस सनि
निस मनि सम निसि धरि धरि मग मधि परि परि पग मगन गनी
निसरी साम साध सानी गनी ‘हरिचंद’ सरिगम पधनी
संस्कृत के एक आचार्य का ऐसा ही एक अनुपम प्रयोग देखिये–
सा ममारिधमनी निधानिनी सामधाम धनिधाम साधिनी
मानिनी सगरिमापपापपा सापगा समसमागमासमा
द्वयाक्षर अर्थात दो अक्षर से बना, त्रयाक्षर और चतुराक्षर की एक झलकी—यानि हर शब्द दो अक्षरों से या तीन से या चार से बना होगा—इस तरह के काव्य में मात्राओं के त्याग के अपने नियम हैं, वहां नहीं जाऊंगा, अभी-एक दृष्टि—
(१) रमा उमा बानी सदा हरि हर विधि संग वाम (द्वयाक्षर)
क्षमा दया सीता सती कीनी रामा राम
(२) श्रीधर भूधर केसिहा केशव जगत प्रमाण (त्रयाक्षर)
माधव राघव कंसहा पूरण पुरुष पुराण
(३) सीतानाथ सेतुनाथ सत्यनाथ रघुनाथ जगनाथ व्रजनाथ दीनानाथ देवगति (चतुराक्षर)
देवदेव यज्ञदेव विश्वदेव व्यासदेव वासुदेव वसुदेव दिव्यदेव हीनरति
उच्चारण स्थान के आधार पर हिन्दी मे व्यंजनों के निम्नलिखित भेद हैं :
1. कण्ठ्य – क , ख , ग , घ , ङ , ह ।
2. तालव्य – च , छ , ज , झ , ञ , य , श ।
3. मूर्द्धन्य ( तालु का ऊपरी भाग ) – ट , ठ , ड , ढ , ण , र , ष ।
4. दन्त्य – त , थ , द , ध , न , ल , स ।
5. ओष्ठ्य – प , फ , ब , भ , म ।
6. अनुनासिक – ङ , ञ , ण , न , म ।
7. दन्तोष्ठ्य – व
काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने के लिए हिन्दी और संस्कृत कवियों के बहुत सारे प्रयोग किये गए हैं ‘निरोष्ठ’ का ‘काव्यादर्श’ में वर्णित एक संस्कृत प्रयोग देखें—-
अगागांगांगकाकाकगाहकाघककाकहा
अहाहांक खगंकागकंकाखगकाकक
सम्पूर्ण श्लोक को पढने के बाद भी कहीं आपके दोनों होंठ आपस में नहीं टकरा सकते, क्योंकि कहीं भी ओष्ठ्य वर्ण का प्रयोग नहीं है. इसी तरह हिन्दी में आचार्य भिखारीदास का एक प्रयोग देखने योग्य है—
कन हैं सिंगार रस के करन जस ये
सघन घन आनंद की झर छे संचारते
दास सरि देत जिन्हें सारस के रस रसे
अलिन के गन खन खन तन झारते
राधादिक नारिन के हिय की हकीकति
लखैं ते अचरज रीति इनकी निहारते
कारे कान्ह कारे कारे तारे ये तिहारे जित
जाते तित राते राते रग करि डारते
”पादुकासहस्रम्” में वर्णित एक ‘स्वर’ और एक ‘व्यंजन’ से निर्मित एक और हैरान करने वाला संस्कृत श्लोक —
यायायायायायायायायायायायायायायाया
यायायायायायायायायायायायायायायाया
ऐसे देखेंगे तो कुछ समझ ही न आयेगा—-मगर जब इसका अन्वय करेंगे तो पद इस तरह निकल कर सामने आता है-
”यायाया आय आयाय अयाय अयाय अयाय अयाय अयाया यायाय आयायाय आयाया या या या या या या या या”
अर्थात-”वो पादुकाएँ जो ईश्वर को सुशोभित करती हैं और वो सब प्राप्त करने में सहायता करती हैं जो सत्य और शुभ है। जो ज्ञानदात्री हैं, जो ईश्वर को प्राप्त करने की कामना जगाती हैं, जो सब अशुभ को नष्ट करती हैं, जिन्होंने ईश्वर को प्राप्त किया है और उनके एक स्थान से दुसरे स्थान तक आने जाने का साधन बनी हैं , जिनके द्वारा जगत के हर स्थान तक जाया जा सकता है, ऐसी भगवन विष्णु की वो चरणपादुकाएँ हैं”
—-इसी क्रम में कई हिन्दी के साथ अन्य कई अद्भुत ग्रंथों का ध्यान आता है, लगभग साढ़े तीन सौ साल पुराना ‘उड़िया’ भाषा का एक विलक्षण काव्य है ”बैदेहीशविलास” विस्मित कर देने वाली ये कृति महाकवि ”उपेन्द्र भंज” ने मात्र बीस वर्ष की उम्र में रची. सम्पूर्ण महाकाव्य की हर पंक्ति ”ब” अक्षर से शुरू होती है, बावन सर्ग हैं, हर सर्ग में बाईस या बयालीस पद हैं और बावन सप्ताह अर्थात एक वर्ष में ये कृति पूर्ण हुई. निरंतर ”ब” अक्षर से प्रारंभ होने वाली पंक्तियों की अर्द्धाली की एक झलक देखिये–
बृद्धि यतन दिनकू दिनु
बिशाल महाकाल कि कर
बुलिले पुरे पुरे स्वच्छरे
बहुत जनजीवन नेई
बप्ताश्वसुर स्थाने स्थाने दशास्य गत
बज्रघातकु मणि इतर
या सत्रहवीं सदी में रचित कांचीपुरम के कवि ”वेंकटाध्वरि” द्वारा रचित एक अद्भुत ग्रन्थ ”राघवयाद्वीयम” संस्कृत में रचा यह काव्य अपने-आप में अनूठा है. जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यह ‘राघव’ अर्थात ‘श्रीराम’ और ‘यादव’ अर्थात यदुवंशी ‘श्रीकृष्ण’ की गाथा है. इस कृति के किसी भी श्लोक को यदि सीधा पढ़ा जायेगा तो ”रामकथा” है और उसी श्लोक को उलटा पढ़ा जायेगा तो ”कृष्णकथा” है—
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः।
रामः रामाधीः आप्यागः लीलाम् आर अयोध्ये वासे ॥ १॥
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के संधान में मलय और सह्याद्रि की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा अयोध्या वापस लौट दीर्घ काल तक सीता संग वैभव विलास संग वास किया।
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी मारामोराः।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥
मैं भगवान श्रीकृष्ण – तपस्वी व त्यागी, रूक्मिणी तथा गोपियों संग क्रीड़ारत, गोपियों के पूज्य – के चरणों में प्रणाम करता हूं जिनके ह्रदय में मां लक्ष्मी विराजमान हैं तथा जो शुभ्र आभूषणों से मंडित हैं।
साकेताख्या ज्यायामासीत् या विप्रादीप्ता आर्याधारा।
पूः आजीत अदेवाद्याविश्वासा अग्र्या सावाशारावा ॥ २॥
पृथ्वी पर साकेत, यानि अयोध्या, नामक एक शहर था जो वेदों में निपुण ब्राह्मणों तथा वणिको के लिए प्रसिद्द था एवं अजा के पुत्र दशरथ का धाम था जहाँ होने वाले यज्ञों में अर्पण को स्वीकार करने के लिए देवता भी सदा आतुर रहते थे और यह विश्व के सर्वोत्तम शहरों में एक था।
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरा पूः।
राधार्यप्ता दीप्रा विद्यासीमा या ज्याख्याता के सा ॥ २॥
समुद्र के मध्य में अवस्थित, विश्व के स्मरणीय शहरों में एक, द्वारका शहर था जहाँ अनगिनत हाथी-घोड़े थे, जो अनेकों विद्वानों के वाद-विवाद की प्रतियोगिता स्थली थी, जहाँ राधास्वामी श्रीकृष्ण का निवास था, एवं आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसिद्द केंद्र था।
आचार्य दंडी ने सबसे पहले इस विधा का उल्लेख ”प्रतिलोममति स्मृतं” कहकर किया है जिसे आज अनुलोम-विलोम काव्य के नाम से जाना जाता है. बाद में रुद्रट, भोजराज और हेमचन्द्र जैसे आचार्यों ने भी इसका उल्लेख किया. अब हिन्दी की बात करें तो आचार्य भिखारीदास ने इसे ”गतप्रत्यागत’ कहा.–नीचे लिखी सवैय्या की चारों पंक्तियाँ अपने आप में एक उदाहरण हैं–उन्हें उल्टा पढो या सीधा हर पंक्ति अपना ही प्रतिबिम्ब है—-
सारस नैनन वै बस मार रमा सब बैनन नै सरसा
सारम सोहय मेन तियासी सिया तिन में यह सो मरसा
सारद सो मन त्यों न बहार रहा बन त्यों नम सो दरसा
सारत लोचन मावर ताल लता रव मान चलो तरसा
या एक दूसरा उदाहरण जिसमें नीचे वाली पंक्ति ऊपर वालो का प्रतिलोम है और ऊपर वाली पंक्ति नीचे वाली का–
रही अरी कब तै हिये बसी सि निरखनी तीर
रती निखर निसि सी गये हितै ब करी अहीर
इसी तरह हिन्दी में ‘वर्णलोप’ छंद का एक विचित्र उदाहरण देखिये—अर्थात किसी छंद में एक ‘वर्ण’ का लोप कर देने से काव्य की उक्ति और अर्थ दोनों का परिवर्तित हो जाना. उदाहरण देखिये–
तमोल मँगाई धरौ इहि बारी
मिलिबे की जिय में रूचि भारी
कन्हाई फिरै कबधौं सखी प्यारी
बिहार की आजु करौं अधिकारी
इस छंद का प्रथम वर्ण लोप कर देने पर यह इस तरह बनेगा—
मोल मँगाई धरौ इहि बारी
लीबे की जिय में रूचि भारी
न्हाई फिरै कबधौं सखी प्यारी
हार की आजु करौं अधिकारी
प्रथम छंद में जहाँ नायिका ने पान मंगा रक्खा है और नायक से मिलन की बात जोह रही है वहीँ दूसरे छंद में नायक ने एक ‘हार’ खरीद रखा है पर उसकी प्रिया स्नान के लिए गयी हुई है. इसी तरह गोकुलकवि ने अपने ग्रन्थ’ ‘चित्रकलाधर” में ”वर्णलोप’ के अलावा ‘वर्णपरिवर्तन’ छंद की अनेक रचनाये की हैं जहाँ एक वर्ण परिवर्तित करने से पूरे छंद का अर्थ ही भिन्न हो जाता है. दीनदयाल गिरि के ”वैराग्य-दिनेश” और राजा महिरामण की ”प्रवीनसागर” जैसी कृतियों में ”गूढ़काव्य” या ”गुप्तकाव्य” के बहुत से उदाहरण मिलते हैं…जिनमें मूल सन्देश, गुप्त रूप से कविता में ही छिपा होता है.
आचार्य रुद्र्ट ने ‘बहिर्लिपिका” और ‘अंतर्लिपिका’ का उल्लेख किया है, हिन्दी में आकर ये ”प्रश्नोत्तर काव्य” हो जाता है, जिसमें दिए गए पद में तीन से लेकर अनेक प्रश्नों के उत्तर छिपे होते हैं. रसिक बिहारी के ”काव्य-सुधाकर” और लछिराम के ”रावणेश्वर कल्पतरु” में इसके बहुत से उदाहरण मिलते हैं. हिन्दी का एक उदाहरण देखिये—-
कौन जाति सीता सती दयो कौन को तात
कौन ग्रन्थ बरन्यों हरी, रामायण अवदात
इस दोहे में तीन प्रश्न हैं (१) सती सीता किस जाति की स्त्री थीं (२) पिता ने उनका विवाह किस से किया (३) उनका हरण किस ग्रन्थ में वर्णित है. दोहे के चौथे चरण में आया शब्द ‘रामायण’ क्रमश: तीनो प्रश्नों का उत्तर है अर्थात रामा—-रामाय—रामायण. इसी तरह दासजी ने ‘सर्वतोभद्र बहिर्लिपिका’ में एक ‘कवित्त’ की रचना की है जिसमे एक साथ ‘पंद्रह’ प्रश्नों के उत्तर हैं’ जमाल कवि की एक विलक्षण कृति ‘जमालमाला’ में ऐसी अनेक रचना है जिसमे ”शब्दों” के स्थान पर ‘अंकों’ का प्रयोग किया गया है–
तिन तिन सत दुई तीन चर पांच छवो सत पांच
विघ्न हरहु कल्यान करू, भज जमाल करि जांच
या
तिन तिन सत, सत दुई इक, छौ पांचो करि ध्यान
नासहू दुःख दारिद सबै कहत जमाल सुजान
ऊपर वाली पंक्ति को देखकर कुछ समझ नहीं आता मगर ये ”गणेश स्तुति” है. जमालमाला में ”छैल” कवि की टिप्पणी है कि-”इन दोहों का अर्थ वो कर सकेंगे जो ‘अंकावली अक्षरों’ के ज्ञाता होंगे. बहुत लोगों ने ‘जय शिव ओमकारा’ आरती ज़रूर सुनी होगी. कुछ ऐसा ही संकेत-काव्य उसमे भी है—जैसे ” एकानन चतुरानन पञ्चानन राजे। दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे”
अर्थात-” विष्णु के एक मुख (एकानन), ब्रह्मा के चार मुख (चतुरानन) और रुद्र के पाँच मुख (पंचानन) शोभित हैं ब्रह्मा की दो भुजाएँ, विष्णु की चार भुजाएँ और महेश की दश भुजाएँ अत्यंत सुंदर लगती हैं।”
इसी क्रम में हिन्दी में आचार्य जनराज, जगतसिंह और गोकुल कवि ने ”प्रश्नोत्तर काव्य’ प्रस्तुत किये हैं. हालांकि संस्कृत में इसका सबसे पहले प्रयोग आचार्य धर्मदास ने अपने ग्रन्थ ‘विदग्धमुखमंडन’ में किया है. ”प्रश्नोत्तर काव्य’ में प्रश्न भी उत्तर में ही छिपा होता है. उदाहरण के लिए केशवदास का एक दोहा देखिये—
को दण्डग्राही सुभट? को कुमार रतिवंत?
को कहिये ससि ते दुखी? कोमल मन को संत ?
प्रश्न–कौन योद्धा दण्डग्राही होता है? अर्थात धनुर्धारी अब अगर ऊपर की पंक्ति देखें ”को दण्ड” इसे मिलाये तो बनता है ”कोदण्ड’ अर्थात धनुष और सुभट माने योद्धा.
प्रश्न–कौन कुमार प्रेमी होता है ? अगर को कुमार का ”कोकुमार” करें अर्थात कोकशास्त्र या कामशास्त्र का ज्ञाता.
इसी तरह काशिराज के एक ”भाषाचित्र’ का उदाहरण देखिये, जिसमे आठ भाषाओँ क्रमश: हिन्दी, प्राकृत, गुजराती, संस्कृत, महाराष्ट्री, पंजाबी, मारवाड़ी और फारसी का प्रयोग है—-
चंद ते मुख चारु सोहे णअण तो हरिणी जिया
कैड जे बूँ नव जलाधूँ कलश जितस्वकुचश्रिया
चंप काहुनि फाररंगीआखि तुसि असि चुक्किया
वार कांई हरि करौ छौ रौ बुबीं हज्ज कुल्लिया
”भाषाचित्र’ की ही तरह श्रीधर पाठक और भारतेंदु के द्वारा अनेक ”लिपिचित्र” भी रचे गए पर विषय-विस्तार के भय से उन्हें त्याग रहा हूँ. ”भुवनेशभूषण” ग्रन्थ में ”कल्पवृक्षबंध” नाम से एक रचना मिलती है जिसमे एक ही रचना में ”नौ छंद” का प्रयोग हुआ है. काशिराज ने ”कल्पवृक्षबंध” को ”चौबीस छंद” तक रचा है.
पूर्व में ”राघवयाद्वीयम” की चर्चा अनुलोम-विलोम काव्य के रूप में हुई है इसी विधा में ”दैवत सूर्य कवि” की लगभग छह सौ वर्ष पुरानी एक और चौंकाने वाली रचना ”रामकृष्णविलोमकाव्य” स्मरण आती है. श्लोक देखिये—
तं भूसुतामुक्तिमुदारहासं वन्दे यतो भव्यभवं दयाश्रीः ।
श्रीयादवं भव्यभतोयदेवं संहारदामुक्तिमुतासुभूतम् ॥ १॥
चिरं विरंचिर्न चिरं विरंचिः साकारता सत्यसतारका सा ।
साकारता सत्यसतारका सा चिरं विरंचिर्न चिरं विरंचिः ॥ २॥
इसे सीधा पढ़ें तो रामकथा और उल्टा पढ़ें तो कृष्णकथा है. इसी कर्म में ‘हरिदत्त सुरि” का एक ग्रन्थ ”राघवनैषधीय” भी है जिसे सीधा पढ़ें तो रामकथा और उल्टा पढ़ें तो राजा ”नल” की कथा है. महाकवि ‘चिदम्बर’ की एक और कृति ”राघवपाण्डवीय-यादवीय” में एक ही श्लोक में एक साथ तीन कथाएं राम, कृष्ण और पांडवों की चलती है. अयोध्या में सोलहवीं शताब्दी में लक्ष्मण भट्ट के पुत्र रामचंद्र की एक कृति ”रसिकरंजन’ स्मरण आती है जिसमे उसी पद को एक तरफ से पढने पर परम श्रृंगार है तो दूसरी तरफ से पढने पर परम वैराग्य’
हिन्दी में नन्ददास की ”मानमंजरी” जिसमें एक तरफ से पढने पर ये ”शब्दकोष” है जिसमें शब्दों के अर्थ दोहों में दिए गए हैं दूसरी तरफ से पढने पर राधा के नाराज़ होने और सखी द्वारा उसे मनाये जाने की कथा है.
भाषा अनेक अद्भुत विचित्रताओं से भरी परिघटना है. विचित्रताओं के इस लोक में ”चर्लभास्करकर शास्त्री” की ”कंकणबंधरामायण” केवल एक श्लोक की पुस्तक है. इस श्लोक को देखें—-
कामामामायासारामे हामामारा दारागासा
लापासेनापायासामा यानीष्ठोभादाया डरा
या
रामानाथा भारासाराचारावारा गोपाधारा
धाराधाराभीमाकारा पारावारा सीतारामा
इस श्लोक की विचित्रता ये है कि इसे कहीं से भी पढने पर क्रमशः ६४ और १२८ छंद प्राप्त होते हैं. जिनमे सम्पूर्ण रामकथा है. एक और चेतना-हिलाऊ ग्रन्थ ‘वेंकटेश्वर’ कवि का ‘रामायण-संग्रह’ है. इस कृति को यदि चार तरह से पढ़ा जाए तो चार ग्रन्थ… गौरी-विवाह, भगवादावतारचरित, द्रौपदी-कल्याण और श्रीरंगादिक्षेत्रमहात्म्य” इसमें से निकल आते हैं.
–कुमार पंकज