विश्व आदिवासी दिवस
विश्व आदिवासी दिवस : संकल्प लेने का दिन बढ़ेंगे कदम-दर-कदम
#पण्डितपीकेतिवारी (सह-संपादक)
जब जंगलों में रहने वाले लोग बाहरी दुनिया के लोगों से मिलते हैं तो बाहरी चमक-दमक देखकर वनवासियों के युवा बाहरी दुनिया को और जानना, समझना चाहते हैं। उन्हें अपनी संस्कृति, अपने लोगों की तुलना में बाहरी दुनिया ज्यादा मोहक लगती है और यहीं से पलायन की शुरु होती है। अपने गाँव के बुजुर्गों और उनके बताए ज्ञान को एक कोने में रखकर युवा घर से दूर होने लगते हैं और यहीं से पारंपरिक ज्ञान के पतन की शुरुआत भी होती है।
विश्व आदिवासी दिवस न केवल मानव समाज के एक हिस्से की सभ्यता एवं संस्कृति की विशिष्टता का द्योतक है, बल्कि उसे संरक्षित करने और सम्मान देने के आग्रह का भी सूचक है. आदिवासी समुदायों की भाषा, जीवन-शैली, पर्यावरण से निकटता और कलाओं को संरक्षित और संवर्धित करने के प्रण के साथ आज यह भी संकल्प लिया जाए कि अपनी आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने में उनके साथ कदम-से-कदम मिला कर चला जाए. इन पहलुओं को रेखांकित करते हुए आज की यह विशेष प्रस्तुति… आदिवासी अस्तित्व का सवाल दयामनी बरला सामाजिक कार्यकर्ता, झारखंड आज जब हम धूमधाम से विश्व आदिवासी दिवस मना रहे हैं, तब हमारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि हम आदिवासी-मूलवासी लोगों की दशा और दिशा की ईमानदारी से समीक्षा करें. हम यह देखें कि जो संवैधानिक अधिकार भारतीय संविधान ने हमें दिया है, इसे अपने समाज-राज्य और देश-हित में उपयोग कर पा रहे हैं या नहीं. चाहे जल-जंगल-जमीन पर परंपरागत अधिकार हो, पांचवीं अनुसूची में वर्णित प्रावधान हो, ग्रामसभा का अधिकार हो, सीएनटी, एसपीटी एक्ट के प्रावधान हों, वन अधिकार कानून हो या फिर स्थानीय नीति के प्रावधान हों, हम देखें कि धर्मांतरण बिल के प्रावधान व जमीन अधिग्रहण बिल 2017 के प्रावधानों ने हमारा कितना हित किया है? विश्व आदिवासी दिवस मनाने के लिए जब हम रंगमंच में विभिन्न लोकगीत, संगीत और नृत्य से लोगों के दिलों में अपनी पहचान और इतिहास को उभारने की कोशिश कर रहे हैं, तब इस गीत को भी नहीं भूलना चाहिए, जो अंग्रेजों के खिलाफ 9 जनवरी, 1900 को डोम्बारी पहाड़ पर बिरसा मुंडा के लोगों के संघर्ष को मुंडा लोकगीत में याद करते हैं- ‘डोम्बारी बुरू चेतन रे ओकोय दुमंग रूतना को सुसुन तना, डोम्बारी बुरू लतर रे कोकोय बिंगुल सड़ीतना को संगिलकदा/ डोम्बरी बुरू चतेतन रे बिरसा मुंडा दुमंग रूतना को सुसुन तना, डोम्बरी बुरू लतर रे सयोब बिंगुल सड़ीतना को संगिलाकदा.’ (डोम्बारी पहाड़ पर कौन मंदर बजा रहा है, लोग नाच रहे है, डोम्बारी पहाड़ के नीचे कौन बिगुल फूंक रहा है जो नाच रहे हैं, डोम्बारी पहाड़ पर बिरसा मुंडा मांदर बजा रहा है- लोग नाच रहे हैं. डोम्बारी पहाड़ के नीचे अंग्रेज कप्तान बिगुल फूंक रहा है- लोग पहाड़ की चोटी की ओर ताक रहे हैं). समाज के अंदर हो रही घटनाओं पर हमें चिंतन करने की जरूरत है. चाहे अंधविश्वास के कारण हो रही हत्याएं, या उग्रवादी-माओवादी हिंसा के नाम हर साल सैकड़ों लोगों की हत्याएं, अपहरण, बलात्कार, मानव तस्करी जैसे अमानवीय घटनाएं हों. इनसे आदिवासी-मूलवासी समाज को ही नुकसान हो रहा है. परिणामस्वरूप समाज की समरसता, एकता विखंडित होने से जल-जंगल-जमीन लूटनेवालों की शक्ति बढ़ती जा रही है. आदिवासी-मूलवासी किसान, दलित-मेहनतकश समाज की सामाजिक, आर्थिक, संस्कृतिक और राजनीतिक संगठित शक्ति कमजोर होती जा रही है. आज जनविरोधी नीतियों की आलोचना करने पर देशद्रोह के मुकदमे का सामना करना होगा. पथलगड़ी के नाम पर सैकड़ों मुंडा आदिवासियों पर देशद्रोह का मुकदमा किया गया है. हजारों बेकसूर आदिवासी युवक जेल में हैं. जल-जंगल-जमीन की लूट तेजी से बढ़ रही है, जिससे हमारी पहचान- सरना व ससनदीरी पर भी हमला बढ़ रहा है. आज विश्व आदिवासी दिवस के इस अवसर पर झारखंड राज्य में शहादत देनेवाले हुलउलगुलान के क्रांति नायकों-सिदो-कान्हू, फूलो-झानो, सिंदराय-बिंदराय, तेलेंगा खड़िया, तिलका मांझी, गया मुंडा, डोंका मुंडा, वीर बुधु भगत, जतरा टाना भगत जैसे नायकों के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए संकल्प लेने की जरूरत है. तभी आज के वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था से उत्पन्न चुनौतियों का सामना आदिवासी-मूलवासी, दलित, किसान समाज कर पायेगा. झारखंड में जल संकट गहराता जा रहा है, प्रदूषण पर्यावरण को निगलता जा रहा है. आज सिर्फ दो ही रास्ते हैं- या तो चुनौतियों से समझौता कर लें, या घायल शेर की तरह अपने को बचायें. यही रास्ता आदिवासी-शहीदों का इतिहास है. जब तक जल-जंगल-जमीन, नदी-पहाड़, झील-झरना बचा रहेगा, तब तक आदिवासी समाज की भाषा-संस्कृति, सरना-ससनदीरी, अस्तित्व और पहचान बची रहेगी. आदिवासियों के लिए शिक्षा जरूरी बीनालक्ष्मी नेपराम सहसंस्थापक, डोरस्टेप स्कूल, मुंबई भौगोलिक और ऐतिहासिक रूप से देखा जाये, तो पूर्वोत्तर के राज्यों में विकास अभी अपने मानक तक नहीं पहुंचा है. पूर्वाेत्तर में सबसे ज्यादा जरूरत इस वक्त शिक्षा को लेकर काम करने की है. आदिवासियाें में शिक्षा का बहुत अभाव है और शैक्षणिक संस्थाओं की कमी है. जब तक आदिवासी समुदायों में शिक्षा नहीं बढ़ेगी, पूर्वोत्तर में शिक्षण संस्थाओं का विकास नहीं होगा, तब तक उनका विकास संभव नहीं है. वे लड़के-लड़कियां जिनके पास थोड़े पैसे हैं, वे दिल्ली, मुंबई या बाकी शहरों में जाकर उच्च शिक्षा हासिल तो कर लेते हैं, लेकिन आदिवासी समुदाय की ज्यादातर आबादी उच्च शिक्षा से वंचित है. शिक्षा की कमी की वजह से ही पूर्वोत्तर अपने संसाधनों के दोहन को पूंजीपतियों के हाथ से बचा नहीं पाता है. हालांकि, कानून से संसाधनों की लूट रोकी जा सकती है, लेकिन उनका पालन नहीं हो पाता. शक्तियां मुट्ठी भर लोगों के हाथ में है और अभाव से पूरा पूर्वोत्तर ग्रस्त है. इसलिए जरूरी है कि वहां शिक्षा का प्रसार हो और शैक्षणिक संस्थाओं का विस्तार हो, ताकि लोग अपने कानूनी अधिकार को समझ सकें. आदिवासी समुदायों के साथ शोषण भी बहुत होता है, क्योंकि वे गरीब और मजदूर वर्ग के लोग हैं. आदिवासी समुदाय के पास शक्तियों का अभाव है, इसलिए ताकतवर लोग उनका शोषण करते हैं. यह एक बहुत बड़ी समस्या है, जिसे शिक्षा के जरिये ही दूर किया जा सकता है. वहां कानून ऐसे बनाने चाहिए, ताकि आदिवासी समुदायों के हाथ में भी शक्तियां हों और वे अपने अधिकार को समझ सकें, हासिल कर सकें. आदिवासी समुदायों को ताकत मिलेगी, तो वे खुद अपने समुदायों के बीच काम करेंगे और मुझे उम्मीद है कि वे बेहतर काम करेंगे.
विज्ञान की शुरुआत ही परंपरागत ज्ञान से होती है और सही मायनों में परंपरागत ज्ञान, आधुनिक विज्ञान से कोसो आगे है। विज्ञान की समझ आपको सिखाती है कि टमाटर एक फल है जबकि परंपरागत ज्ञान बताता है कि टमाटर के फलों को सलाद के तौर पर इस्तेमाल ना किया जाए। ज्ञान परंपरागत होता है, पुराना होता है जबकि विज्ञान विकास की तरह हर समय नया और अनोखा, फिर भी पिछड़ा हुआ सा। वनवासियों के बीच रहते हुए कम से कम इतना तो सीख पाया हूँ। वनवासियों का ज्ञान शब्दों के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक तैरता हुआ आगे बढ़ा चला आ रहा है। पर्यावरण और प्रकृति के सजग रक्षक सही मायने में वनवासी ही हैं। वनवासियों की समझ और ज्ञान को आधुनिकता की धूप से एक हद तक दूर रखना ही आवश्यक है और आवश्यकता यह भी है कि इनके इस ज्ञान का संकलन समय रहते किया जाए। आधुनिकता जैसे भ्रम ने हमारे समाज में जिस कदर पैर पसारने शुरु किए हैं, ना सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि सारी दुनिया के वनवासी एक अनकहे और अनजाने से खतरे के चौराहे पर हैं, जहाँ इनके विलुप्त तक हो जाने की गुंजाईश है। वनवासियों के वनों और प्रकृति से दूर जाने या खो जाने से आदिकाल से सुरक्षित ज्ञान का भंडारण जैसे खत्म ही हो जाएगा। सारी दुनिया के पर्यावरणविद पर्यावरण संरक्षण को लेकर बेहद चिंता करते रहते हैं, शहरों में रैलियाँ निकाली जाती हैं और ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दों पर बहस आदि का आयोजन भी होता रहता है, मगर शायद ही कहीं पर्यावरण के सच्चे रक्षकों यानि वनवासियों के लिए कोई वाकई फिक्रमंद होगा।
हजारों सालों से वनवासियों ने वनों के करीब रहते हुए जीवन जीने की सरलता के लिए आसान तरीकों, नव प्रवर्तनों और कलाओं को अपनाया है। आदिवासियों ने मरुस्थल में खेती करने के तरीके खोज निकाले, तो कहीं जल निमग्न क्षेत्रों में भी अपने भोजन के लिए अन्न व्यवस्था कर ली। पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बगैर वनवासियों ने अपने जीवन को हमेशा से सरल और आसान बनाया है। इनका परंपरागत ज्ञान हजारों साल पुराना है, आज भी पर्यावरण और मौसम परिवर्तनों का अनुमान सिर्फ आसमान पर एक नजर मार कर लगाने वाले आदिवासी शहरी लोगों के लिए कौतुहल का विषय हो सकते हैं लेकिन इनके ज्ञान की संभावनांए किसी दायरे तक सीमित नहीं है।
पेसिफिक आईलैण्ड के आदिवासियों के हुनर का जिक्र किया जाए तो शायद कुछ हद तक हम समझ पाएंगे कि पारंपरिक ज्ञान में कितना दम है और इसे खो देने मात्र से हमें कितने नुकसान होगा। आसमान में उड़ने वाली तितलियों को देखकर पेसिफिक आईलैण्ड के आदिवासी अनुमान लगा सकते हैं कि उस दिन शाम तक मौसम शाम कैसा रहेगा? बरसात होगी या धूप खिली रहेगी? या तेजी आँधी चलेगी। मौसम के पूर्वानुमान के लिए की गयी ये भविष्यवाणियाँ सौ फीसदी सही साबित होती हैं लेकिन दुर्भाग्य से इस तरह का ज्ञान विलुप्त होने की कगार पर है क्योंकि यहाँ पर पर्यटन विकसित होने के बाद बाहरी लोगों के कदम पड़ने शुरू हो चुके हैं। आदिवासियों के बच्चे बाहरी दुनिया से रूबरू हो रहे हैं और इस तरह युवा अपना घर छोड़कर रोजगार की तलाश के नाम पर आईलैण्ड छोड़कर जा रहे हैं। यद्यपि पिछ्ले एक दशक में इस क्षेत्र से आदिवासियों के पलायन ने तेजी पकड़ रखी है लेकिन कुछ संस्थाओं और आदिवासी बुजुर्गों ने अब तक आस नहीं छोड़ी है।
जब से वनवासी विस्तार और लोगों तक तथाकथित आधुनिक विकास ने अपनी पहुँच बनानी शुरू करी है, तब से वनवासी परंपराओं का विघटन भी शुरु हो गया है। सदियाँ इस बात की गवाह है कि जब-जब किसी बाहरी सोच या रहन-सहन ने किसी वनवासी क्षेत्र या समुदाय के लोगों के बीच प्रवेश किया है, इनकी संस्कृति पर इसका सीधा असर हुआ है। विकास के नाम पर वनवासियों की जमीनें छीनी गई, बाँध बनाने के नाम पर इन्हें विस्थापित किया गया और दुर्भाग्य का बात है कि ये सारे विकास के प्रयास वनवासी विकास के नाम पर किए जाते रहे हैं लेकिन वास्तव में ये सब कुछ हम बाहरी दुनिया के लोगों के हित के लिए होता है ना कि वनवासियों के लिए। जंगल में सदियों से रहने वाले वनवासी जंगल के पशुओं के लिए खतरा नहीं हो सकते, जानवरों के संरक्षण, जंगल को बचाने के नाम पर जंगल में कूच करने वाली एजेंसियाँ जंगल के लिए ज्यादा बड़ा खतरा हैं। जब जंगलों में रहने वाले लोग बाहरी दुनिया के लोगों से मिलते हैं तो बाहरी चमक-दमक देखकर वनवासियों के युवा बाहरी दुनिया को और जानना, समझना चाहते हैं। उन्हें अपनी संस्कृति, अपने लोगों की तुलना में बाहरी दुनिया ज्यादा मोहक लगती है और यहीं से पलायन की शुरु होती है। अपने गाँव के बुजुर्गों और उनके बताए ज्ञान को एक कोने में रखकर युवा घर से दूर होने लगते हैं और यहीं से पारंपरिक ज्ञान के पतन की शुरुआत भी होती है। मध्यप्रदेश के पातालकोट घाटी की ही बात करें तो मुद्दे की गंभीरता समझ आने लगती है। लगभग ७५ स्के.किमी के दायरे में बसी इस घाटी को बाहरी दुनिया की नज़र ६० के दशक तक नहीं लगी थी।
प्रकृति की गोद में, ३००० फीट गहरी बसी घाटी में, भारिया और गोंड आदिवासी रहते हैं। बाहरी दुनिया से दूर ये आदिवासी हर्रा और बहेड़ा जैसी वनस्पतियों को लेकर प्राकृतिक नमक बनाया करते थे, पारंपरिक शराब, चाय, पेय पदार्थों से लेकर सारा खान-पान सामान, यहीं पाई जाने वाली वनस्पतियों से तैयार किया जाता था। करीब ७० के दशक से हमारे तथाकथित आधुनिक समाज के लोगों ने जैसे ही घाटी में कदम रखा, स्थानीय आदिवासियों के बीच अंग्रेजी शराब, बाजारू नमक से लेकर सी डी प्लेयर और अब डिश टीवी तक पहुँच गया है। घाटी के नौजवानों का आकर्षण बाहर की दुनिया की तरफ होता चला गया। सरकार भी रोजगारोन्मुखी कार्यक्रमों के चलते इकोटुरिज़्म जैसे नुस्खों का इस्तेमाल करने लगी, लेकिन यह बात मेरी समझ से परे है कि आखिर पैरा-सायक्लिंग, पैरा-ग्लायडिंग, एड्वेंचर स्पोर्ट्स के नाम पर पातालकोट घाटी के लोगों को रोजगार कितना मिलेगा और कैसे? पेनन आईलैण्ड में भी सरकारी आर्थिक योजनाओं के चलते एडवेंचर टुरिज़्म जैसे कार्यक्रम संचालित किए गए ताकि बाहरी लोगों के आने से यहाँ रहने वाले आदिवासियों के लिए आय के नए जरिये बनने शुरु हो पाएं। सरकार की योजना आर्थिक विकास के नाम पर कुछ हद तक सफल जरूर हुयी लेकिन इस छोटी सफलता के पीछे जो नुकसान हुआ, उसका आकलन कर पाना भी मुश्किल हुआ। दर असल इस आईलैंड में कुल १०००० वनवासी रहते थे। बाहरी दुनिया के लोगों के आने के बाद यहाँ के युवाओं को प्रलोभन देकर वनों के सौदागरों ने अंधाधुंध कटाई शुरु की। वनों की कटाई के लिए वनवासी युवाओं को डिजिटल गजेट (मोबाईल फोन, टेबलेट, सीडी प्लेयर, घड़ियाँ आदि) दिए गये, कुछ युवाओं को बाकायदा प्रशिक्षण के नाम पर जंगलों से दूर शहरों तक ले जाया गया। धीरे-धीरे युवा वर्ग अपने संस्कारों और समाज के मूल्यों को भूलता हुआ शहर कूच कर गया। आज इस आईलैण्ड में कुलमिलाकर सिर्फ ५०० वनवासी रहते हैं बाकी सभी घाटी और प्रकृति से दूर किसी शहर में बंधुआ मजदूरों की तरह रोजगार कर रहें है। आईलैण्ड में बाहरी लोगों के रिसोर्ट, वाटर स्पोर्ट हब, मनोरंजन केंद्र बन गए हैं लेकिन विकास की ऐसी प्रक्रिया में एक वनवासी समुदाय का जो हस्र हुआ, चिंतनीय है।
पातालकोट जैसे प्राकृतिक क्षेत्रों में पेनन आईलैण्ड की तरह ईको टूरिज़्म का होना मेरे हिसाब से बाहरी दुनिया के लिए एक खुला निमंत्रण है जिसके तहत लोग यहाँ तक आएं और पेसिफिक और पेनन आईलैण्ड जैसी समस्याओं की पुनरावृत्ति हो। यहाँ टूरिज़्म की संभावनाओं को देखते हुए मोटेल और रिसोर्ट्स बनाने की योजनांए हैं, आसपास के क्षेत्र और पातालकोट में भी आधुनिकता और डिजिटलीकरण की धूप पहुँचने लगी है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हुयी है, पलायन तेज हो गया है और देखते ही देखते ये घाटी और यहाँ की सभ्यता भी खत्म हो जाएगी। आदिवासी गाँवों से निकलकर जब शहरों तक जाते हैं, गाँवों की शिक्षा को भूल पहले शहरीकरण में खुद को ढाल लेते हैं और इस तरह चलता रहा तो गाँव के बुजुर्गों का ज्ञान बुजुर्गों तक सीमित रहेगा और एक समय आने पर सदा के लिए खो भी जाएगा। पर्यटन के नाम पर ब्राजील जैसे देश में पिछले सौ सालों में २७० वनवासी समुदायों से ९० पूरी तरह से विलुप्त हो चुके हैं यानि करीब हर दस साल में एक जनजाति का पूर्ण विनाश हो गया
आज इस बात की जरूरत है कि वनवासी समाज के युवाओं को उनकी संस्कृति, रहन-सहन, पारंपरिक ज्ञान और पर्यावरण संरक्षण संबंधित बुजुर्गों के अनुभवों की महत्ता बतायी जाए। युवाओं के पलायन को रोककर गाँवों में ही रोजगार के अवसर प्रदान कराए जाएं ताकि गाँवों की सूरत जरूर बदले लेकिन आत्मा और शरीर वही रहे। पलायन करके गाँव का नौजवान जब शहर पहुँचता है और शहर की चकाचौंध रौशनी और रफ्तार में पहुँच जाता है तो यकीन कर लेता है कि इस दुनिया को इंसान ने बनाया है, ना कि बुजुर्गों के कहे अनुसार किसी भगवान ने। धीमे- धीमे उसे गाँव् और बुजुर्गों की हर बात बेमानी सी लगने लगती है। देहाती भाषा बोलने पर उसका मजाक उड़ाया जाता है, उसका उपहास होता है। विकास की ये कैसी दौड़ जिसमें हम खुद अपने पैरों के तले गढढा खोदने पर आतुर हैं? शहरीकरण होने की वजह से दुनियाभर की ६००० बोलियों में से आधे से ज्यादा खत्म हो चुकी हैं क्योंकि अब उसे कोई आम बोलचाल में लाता ही नहीं है, कुल मिलाकर भाषा या बोली की मृत्यु हो जाती है। एक भाषा की मृत्यु या खो जाने से से भाषा से जुड़ा पारंपरिक ज्ञान भी खत्म हो जाता है। लोक भाषाओं और बोलियों के खो जाने का नुकसान सिर्फ वनवासियो को नहीं होगा बल्कि सारी मानव प्रजाति एक बोली के खो जाने से उस बोली या भाषा से जुड़े पारंपरिक ज्ञान को खो देती है। आज भी दुनियाभर के तमाम संग्राहलयों में क्षेत्रिय भाषाओं और बोलियों से जुड़े अनेक दस्तावेज धूल खा रहें है और ना जाने कितनी दुलर्भ जानकारियाँ समेटे ये दस्तावेज अब सिवाय नाम के कुछ नहीं। ब्राजील की ऐसी एक विलुप्तप्राय: जनजाति से प्राप्त जानकारियों से जुड़े कुछ दस्तावेजों पर सालों तक शोध किया गया और पाया गया कि ये आदिवासी समुद्री तुफान आने की जानकारी ४८ घंटे पहले ही कर दिया करते थे और ठीक इसी जानकारी को आधार मानकर आधुनिक विज्ञान की मदद से ऐसे संयंत्र बनाए गए जो प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी समय से पहले दे देते हैं।
पारंपरिक ज्ञान को आधार मानकर सारे मानव समुदाय और समाज के लिए नयी शोध और नवप्रवर्तन को तैयार करना, पारंपरिक ज्ञान का सम्मान है। पातालकोट जैसे समृद्ध आदिवासी इलाकों में पारंपरिक ज्ञान समाज का मूल हिस्सा है लेकिन ना सिर्फ पातालकोट बल्कि दुनियाभर में आज विकास के नाम पर जो दौड़ लगाई जा रही है, इस बात का पूरा डर है कि अनेक जनजातियों के बीच चला आ रहा पारंपरिक ज्ञान कहीं विकास की चपेट में आकर खो ना जाए। मैं विकास का विरोधी नहीं हूँ, विकास होना जरूरी है लेकिन विकास होने से पहले ये भी तो तय हो कि विकास किसका होना है और किस हद तक होना है। अब तक आदिवासियों का विकास होने के बजाए उनका रूपान्तरण होता आया है। विकास तो हो लेकिन आदिवासियों का रूपांतरण ना हो, उनकी संस्कृति, संस्कारों, रहन-सहन, खान-पान और ज्ञान को बचाया जाए ताकि आने वाली पीढ़ी भी इनके ज्ञान से नवसर्जन करके मानव हित के लिए नए उत्पाद, नए सुलभ उपाय और पारंपरिक ज्ञान की मदद से पर्यावरण को सजाएं, मानव जीवन को सजाएं।