विवश लड़की
वह लड़की
कर रही है
अंतहीन संघर्ष।
पथरीली डगर
तपती दुपहर
नंगे पैरों ही
तय कर रही सफर।
हर कदम पर
घूरती नजरे
देख-देख कर
सिहरता अंतर।
दर्द का सागर
लेता हिलोरें
चेहरे पर उभरती है
तनाव की रेखाऍं।
मस्तिष्क में चलता
झंझावात
भाई की पढ़ाई
माॅं की दवाई ।
कुछ सोच-
फिर चल देती है
उसी डगर-
जहाॅं से लौटना
आसान नहीं।
जहां अस्मिता की
कोई पहचान नहीं।
क्या हम इतना भी
नहीं कर सकते?
उसे विवश लड़की को
लौटा लाऍं वापिस
उसके सही पथ पर
ताकि चिड़ियों की तरह
ना नुचे उसके पर।
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर ( राजस्थान)