विडम्बना
विडम्बना
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प्रेमपत्र की बात करें तो
पत्र तो है बस प्रेम नहीं है,
प्रेम आज बन गई वासना
प्रेमी कहते टेम नहीं है।
करें बात सभ्य समाज की
सभ्य नहीं समाज कहीं है,
भुल गये सब मानवता को
इंसा है मानवता नहीं है।
रिश्तेदार सब बनें पाखंडी
रिश्ता है वो बात नहीं है,
रिश्ते को हम प्रेम से पालें
ऐसी अब औकात नहीं है।
रिश्तेदार आधार है पैसा
बीन पैसा कोई बात नहीं है
संस्कार बाजार में बीक गये
रिश्तों का सम्मान नहीं है।
एक पिता के जनें दो बच्चे
भ्रातृप्रेम अब शेष नहीं है,
भाई अब भाई को मारे
दया धरम भी शेष नहीं है।
पिता पुत्र के बीच का रिश्ता
स्नेह, समर्पण आज नहीं है
आज पुत्र के नजर पिता का
तनिक जगह भी खास नहीं है।
नेकनियती पर अब जो आयें
नियत नेक अब कहीं नहीं है,
मानव आज कपट का पुरला
बीना कपट कोई काम नहीं है।
संस्कार, संस्कृति की बातें
आज तो पुस्तक में ही पड़ी है,
अब तो हे प्रभु आन उबारो
मानवता पे बिपत्ति बड़ी है।।
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”