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21 Mar 2024 · 7 min read

*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : रस्सियाँ पानी की
(गजल संग्रह) : कुँअर बेचैन
प्रकाशक : प्रगीत प्रकाशन 2 एफ – 51 नेहरु नगर, गाजियाबाद ( उ० प्र०),
प्रथम संस्करण: 1987
मूल्य : 25 रुपए,
पृष्ठ संख्या: 128
————————————————–
समीक्षक : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
————————————————-
कुँअर बेचैन का नवीनतम गजल-संग्रह “रस्सियाँ पानी की” मेरे सम्मुख है। इसमें अस्सी गजलें हैं जिसमें उनकी 1983 से जनवरी सन 1987 तक की लिखी हुई गजलें शामिल हैं। अस्सी गजलें इस पुस्तक में कुँअर बेचेन ने कहीं हैं-पुस्तक का महत्व इतना ही नहीं है । पुस्तक को अत्यन्त महत्वपूर्ण बना रहा है, बीस पृष्ठों का वह विस्तृत स्वतन्त्र लेख जिससे पता चलता है कि गजलकार ने गजल को कहने के साथ-साथ कितनी गहराई से समझा है गजल की विधा को और पाठकों को समझाया है। एक शिक्षक की शैली में कुँअर बेचैन ने पुस्तक के गजल संरचना खण्ड में गजल की बहरों पर गम्भीर खोजपूर्ण जानकारी पाठकों को दी है। कठिन परिश्रम से लेखक ने उर्दू गजल की बहरों के अरबी नामों का हिन्दी नामकरण किया है। नामकरण – जो हर बहर के हृदय-भाव को समझने के बाद ही किया गया है। केवल इतना ही नहीं अपितु हर उर्दू रूक्न को नए सिरे से हिन्दी में समझाने के लिए उसके पृथक-पृथक हिन्दी पदों का मात्राओं के लिहाज से आविष्कार किया है। विद्वान लेखक ने मात्राओं के आधार पर गजल की बहरों को हिन्दी में प्रस्तुत करने के लिए संस्कृत के प्राचीन दशाक्षरी सूत्र “यमाता राजभान सलगा” का प्रयोग किया है। लेखक के इस परिश्रम से उर्दू गजल का शास्त्रीय पक्ष हिन्दी जगत के निकट आया है और बहर को समझना सरल हो गया है। आज जब गजल हिन्दी में भरपूर कही जा रही है, कुँअर बेचैन जैसे समर्पित साधकों का गजल संरचना पक्ष पर हिंदी दृष्टि से यह कार्य हिंदी और ग़ज़ल दोनों की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला महान कार्य है। कुँवर बेचैन ने गहन शोध से यह भी सिद्ध किया है कि उर्दू की अनेक बहरें हिंदी संस्कृत के प्राचीन छंदों का ही नया रूप हैं । संस्कृत के भुजंगप्रयात और बाण नामक छंद में लेखक ने बहरे मुतकारिब (मिलन छन्द) के दर्शन किए हैं। यही नहीं, संस्कृत-हिन्दी के शक्ति छन्द, विजातक छंद, सुमेरु छंद, दिगपाल छन्द आदि को लेखक ने अपने श्रमसाध्य अध्ययन से विविध उर्दू बहूरों के समकक्ष रखने के निष्कर्ष प्रतिपादित किए हैं। निश्चय ही साधुवाद के पात्र हैं विद्वान लेखक, अभिनन्दनीय है उनका परिश्रम और वन्दनीय है गजल की आत्मा को समझने-समझाने की उनकी लगन।
कुँअर बेचैन ने स-प्रयास अथवा अनायास अपनी गजलें बहरे रमल (बिन्दु अंकन छंद) में अधिक कही हैं। आलोच्य पुस्तक में ही अस्सी में से इक्यावन यानि लगभग दो तिहाई गजले रमल में हैं। बहरे रमल के विषय में उन्होंने लिखा है कि “रमल शब्द अरबी भाषा का है। इस शब्द का अर्थ उस विधा से है जिससे भविष्य में होने वाली घटनायें बता दी जाती हैं। इस विधा का मूल आधार नुक्ते (विन्दियाँ) हैं। इसी अर्थ के आधार पर हम इसे बिन्दु अंकन छंद नाम दे रहे हैं। इस बहर के विषय प्रेरणात्मक भी हो सकते हैं तथा उपदेशात्मक भी।” (पृष्ठ 109) अगर उपरोक्त व्याख्या को सही मानें तो कुँअर बेचैन को मुख्यतः प्रेरणात्मक या उपदेशात्मक गजले कहने वाला मानना चाहिए । पर, समीक्षक को नहीं लगता कि कोई बहर किसी विशिष्ट विचार, भाव या रस संप्रेषण में बँधी हैं। संभवतः हर बहर में समयानुकूल अथवा गजलकार के अनुकूल बात कही जा सकती है। बहरे रजज (वंश गौरव छद) का केन्द्र विन्दु युद्ध क्षेत्र में अपने कुल की शूरता और श्रेष्ठता का वर्णन कहा जाता है । मगर क्या इस बहर में भ्रष्टाचार के विरोध,सांप्रदायिकता के अन्त और प्रेमिका से प्यार की बातें नहीं की जा सकतीं ? यह भी आखिर वंश गौरव छन्द है :-

मैं तेरी जिस किताब में खत-सा रखा रहा
तूने उसी किताब को खोला नहीं कभी ? (पृष्ठ 30)

बहरे मुतकारिब (मिलन छंद) पर अपनी टीका में विद्वान लेखक ने लिखा है ‘इस छन्द में प्राय: जंग (युद्ध) या सुलतान की मसनवी कही जाती है किन्तु मीरहसन ने ‘मसनवी रुहरुलव्यान लिखकर यह सिद्ध कर दिया कि इस बहर में श्रंगार की कविता भी लिखी जा सकती है।” (पृष्ठ 104) किन्तु उपरोक्त बहर को छोड़कर अन्य किसी स्तर पर बहरों के विषय के सन्दर्भ में लेखक की कोई टिप्पणी उपलब्ध नहीं है। जब बहरे रमल (बिन्दु अंकन छन्द)के अन्तर्गत वह कहते हैं: –

हो के मायूस न यूँ शाम-से ढलते रहिए
जिन्दगी भोर है सूरज-से निकलते रहिए (पृष्ठ 88)

उपरोक्त पंक्तियाँ तो विशुद्ध रूप से प्रेरणात्मक तथा उपदेशात्मक के कोष्ठक में फिट हो जाती हैं, मगर निम्न पंक्तियों में वह उपदेशात्मकता या प्रेरणात्मकता कहाँ हैं ?:-

हम तेरे घर को नयन समझे, यही इक भूल की
वर्ना आँसू बन के तेरे द्वार तक आते नहीं ।(पृष्ठ 21)

कुँअर बेचैन राष्ट्रीय ख्याति के गजलकार हैं। उनकी अस्सी गजलें एक साथ पढ़ना मेरे लिए सुखद अनुभूति रही । उनकी गजलों के बारे में उन्हीं के शब्दों का आश्रय लेकर कहूँगा :- “गजल लोरी भी है, जागरण-गीत भी। एक ही समय में दोनों। (एक ही संग्रह में दोनों -समीक्षक) लोरी उन्हें जो थके-माँदे हैं। जागरण उन्हें, जिन्हें काम पर निकलना है।”(प्रष्ठ12)
देश, धर्म और समाज को जगाती कुँअर बेचैन की गजल के निम्न शेर अलसायी आँखों पर पड़ते पानी के छींटों की तरह जान पड़ते हैं :-

रात की कालिख बिखरती है सुबह के वक्त भी
बोल सूरज, तेरी किरणों की बुहारी अब कहाँ

और

कितनी खामोशी से हमसे पूछती हैं घंटियाँ
देवता ,मन्दिर ,वो मन्दिर के पुजारी अब कहाँ (पृष्ठ 35)

निम्न गजल को लिखे हुए ( 25 मार्च 1984) तीन साल से ज्यादा हो गये मगर कुँअर बेचैन अब भी जब कभी इसे कवि सम्मेलनों में सुनाते हैं तो लगता है कि अपनी बीती रात के ताजा सन्दर्भों पर बात कर रहे हैं:-

छत की ईंटे ही अगर बारूद से मिल जायेंगी
तो यकीनन घर को नीवें दूर तक हिल जायेंगी
(पृष्ठ 27)

स्मरणीय है कि बारूद और तोप का निकट का सम्बन्ध होता है। आज की राजनीतिक कायरतापूर्ण नपुंसक मानसिकता की स्थिति पर कितना मुखर रहा है, गजल का यह शेर :-

चुप रहे, चुप ही रहे, चुप ही लगातार रहे
बुत-तराशों से तो पत्थर ही समझदार रहे
(पृष्ठ 81)

व्यक्ति की निष्पक्षता उसके ऊँचा उठने में प्रायः बाधक बन जाती है। सत्ता को चापलूस ही पसन्द आते हैं। सारी सुविधायें उन्हीं के लिए हैं। दर्शाता है यह शेर :-

उनका यह हुक्म है कि मैं आकाश तक उडूँ
पर शर्त यह है कि इक तरफ का पर कटा रहे
(पृष्ठ 59)

अभिव्यक्ति जब बन्द कमरे में घुट जाती है तो क्रान्ति जन्म लेती है। परिवर्तन और सुधार के रास्ते बन्द हो जाते हैं तो विस्फोट अनिवार्यता बन जाती है। किसी ईमानदार और सही सोचने वाले व्यक्ति की ईमान की आवाज की मजबूरी को कुँअर बेचैन ने बहुत सशक्त अभिव्यक्ति दी है। क्या पाठकों को नहीं लगेगा कि नोचे लिखा शेर हमारे आस-पास के सबसे ज्वलंत सन्दर्भ पर सर्वाधिक मुखर टिप्पणी है । जब-जब बेईमानों से भरे लोहे के कचरा-डिब्बे में पलीता लगाने वाला कोई ईमानदार विस्फोट होगा, उस क्रान्तिधर्मी की तरफ से कुँअर बेचैन की निम्न पंक्तियाँ गुनगुनाने को जी चाहेगा :-

न खिड़की थी न दरवाजे मैं करता भी तो क्या करता
मुझे हर हाल में दीवार से होकर निकलना था
(पृष्ठ 66)

कुँअर बेचैन की गजलों में राजनीति सीधे-सीधे बिल्कुल नहीं मिलेगी। गजलों की बगिया में राजनीति नाम के स्पष्ट फूल ही तलाशने वाले को कुँअर बेचैन को पढ़कर शायद निराश होना पड़े। पर हममें से बहुतेरे पाठकों को उनकी गजलों में समय के सर्वाधिक ताजा राजनीतिक तेवर सदा दीखेंगे। कारण, कुँअर फूल पर नहीं, उसको सुरुभि पर गजल कहते है।
राजनीति पर अपनी विचित्र खामोश टिप्पणी करने वाले कुँअर का कलमकार एक गहरी उदासी की गजलें कहता रहा है। यह कुँअर प्रेम में हारा-थका है और स्मृतियों की टूटन उसके दिल में बसी है । हताश और निराश प्रेमी के दिल के टूटने और चटकने की व्यथा को स्वर देते उनके कई शेर हैं। उदाहरणार्थ :-

एक टूटे दिल ने आहें भरते दिल से कहा
टूटने का डर ही था तो प्यार तक आते नहीं
(पृष्ठ 21)

ऐ कुँअर दिल तेरा दर्पन-सा चमक जाएगा
उसकी यादों के अगर विम्ब हिले पानी में (पृष्ठ 23)

किस हद तक भोलेपन और सादगी से गजलकार प्यार करने वाले की मनः स्थिति को चित्रित कर सकता है, इसका एक नमुना प्रस्तुत करने के लिए कुँअर बेचैन की निम्न पक्तियाँ पर्याप्त हैं :-

जब से मैं गिनने लगा इन पर तेरे आने के दिन
बस तभी से मुझ को अपनी उगलियाँ अच्छी लगीं
(पृष्ठ 54)

मगर, खुशी का इन्तजार करने या जीने का चित्र खींचने से कुँअर बेचैन की तस्वीर नहीं बनती। कुँअर की गजलें प्रायः हर पृष्ठ पर सुख-कथा नहीं, बेचैन-व्यथा कहती हैं। देखिए :-

मैंने क्या सोच के मुस्कान को अपना माना
जब भी देखा तो मेरा अश्क ही अपना निकला
पृष्ठ 62)

पुस्तक में एक शेर जो मैने पढ़ा तो ठिठक गया। आत्मा द्वारा देह का चोला बदलने और पुनर्जन्म की व्याख्या करने में बिल्कुल नई तरह से प्रतीक प्रयोग द्वारा बात कहने में समर्थ लगा यह शेर :-

एक या दो की नहीं, है ये कई जन्मों की बात
एक पुस्तक थी ‘कवर’ जिस पर नये चढ़ते रहे
(पृष्ठ 82)

कुँअर बेचैन अलग से धार्मिक शेर नहीं लिख रहे, दरपसल आध्यात्मिकता का मर्म उनकी गजलों में प्रायः रचा-बसा है। सम्भवतः यह सच है कि गजल उनकी प्रेमिका ही नहीं, परमसत्ता भी है ।
जो बात कुँअर बेचैन को अन्य गजलकारों से अलग करती है, वह है उनके बिम्ब प्रयोग की विराट अभिव्यक्ति क्षमता । ये गहराई लिए हुए हैं और समय के साथ-साथ इनके व्यापक अर्थ निकलते हैं। कुँअर बेचैन के अधिसंख्य शेर किसी खास कोष्ठक में अर्थ की दृष्टि से सीमित नहीं किए जा सकते। पाठक जिस दृष्टि से और जितनी बार उन्हें पढ़ेगा ,नए-नए अर्थ निकलेंगे। आखिर में फिर उनका एक शेर:-

दिल तो आँगन है प्यार के घर का
कोई दीवार क्यों उठाते हो
( पृष्ठ 38)

क्या कर सकेंगे इनकी अन्तिम व्याख्या और बता सकेंगे इनका अन्तिम मतलब ?
—————————————————-
नोट :

(1) उपरोक्त समीक्षा सहकारी युग (हिंदी साप्ताहिक) रामपुर ,उत्तर प्रदेश 15 अगस्त 1987 अंक में प्रकाशित हो चुकी है।

(2) उपरोक्त समीक्षा पर आदरणीय श्री कुँअर बेचैन जी की सुंदर प्रतिक्रिया भी पोस्टकार्ड के माध्यम से प्राप्त हुई थी ,जो इस प्रकार है:-
————————–
————————–
फोन 8-712958

12.9.91

2 एफ – 51 नेहरुनगर, गाजियाबाद, उ.प्र.

स्नेही भाई रवि प्रकाश जी
सप्रेम नमस्कार
आपका स्नेह-पत्र एवं सारगर्भित पुस्तक-समीक्षा ( रस्सियाँ पानी की ) प्राप्त हुई। समीक्षा पढ़कर आपके भीतर के कुशल समीक्षक के दर्शन हुए। आपमें गहरी दृष्टि एवं गहन विचार की अद्‌भुत क्षमता है। मेरी बधाई स्वीकार करें | मेरे लेखन पर आपकी स्नेहपूर्ण टिप्पणी सचमुच बहुत महत्वपूर्ण है। मै शीतल को यह समीक्षा फोटोस्टेट करा के दे दूँगा | निश्चय ही उन्हें अपने शोध प्रबंध में यह समीक्षा बहुत उपयोगी होगी ।
आपने यह समीक्षा लिखकर भेजी ,इसके लिए किन शब्दों में धन्यवाद दूँ।
आदरणीय महेन्द्र जी को एवं समस्त परिवार को यथा-योग्य |
आपका
कुँअर बेचैन

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