वह घूम रही उपवन-उपवन
पुष्पों सी नजाकत अधरों पर
नवनीत-सा कोमल उर थामे।
एक पाती प्रेम भरी लेकर
वह घूम रही उपवन-उपवन।
सुर्ख कपोलों पर स्याह लटें
धानी आंचल का कर स्पर्श।
छूने को नभ का केंद्र-पटल
वह घूम रही उपवन-उपवन।
मधुर रागिनी करतल ध्वनि पर
छेड़े अनकही अविरल सरगम।
सुधि बिसार, गर्दन उचकाए
वह घूम रही उपवन-उपवन।
भोर को निकली, सांझ ढले तक
प्रियतम की अपलक बाट जोहती।
अतृप्त, अप्रसन्न और विक्षिप्त-सी
वह घूम रही उपवन-उपवन।
ना साज-सिंगार, ना इच्छा बाकी
रोम-रोम बसे मूरत यार की ।
ले अभिलाषा उसके आवन की
वह घूम रही उपवन-उपवन।
विनोद वर्मा ^दुर्गेश’