वर्षा में नदी
सुस्त-सी पड़ गई नदी
अचानक उठ खड़ी होती है
वर्षा में
वर्षा में वह निकाल देना चाहती है
उसकी नस नस में भरा गया जो जहर
मुक्ति के रास्ते तलाशती नदी
योग यु्वती-सी मुद्रायें बनाती
गोल गोल धूमती नृत्याग्ना-सी
नृत्य में मग्न हो जाती है
कहीं उंचाई से कूद
छलांगे लगाती
वेग से बढ़ती जाती है
अगर उसे ज्यादा
सताया गया होता है
अस्तित्व मिटाने की हद तक
शिव तांडव सी ह़ो जाती है
फिर नहीं देखती
किनारों के पेड़
उसे बांधने के लिये बने पुल
किनारों पर बने
छोटे बड़े मकान
अपने क्रोधित वेग में
लीलती जाती है
कहीं कहीं अमर्यादित ह़ो
धुस जाती
कहीं भी
जंगल, पहाड़,
शहर, गांव
नहीं बचते
उसकी जद से
प्रतिशोधी नार-सी
नहीं करती मुआफ
इन्सान को भी
जो उस की रग रग में
धोल देता जहर
वह भी कहर बरसाती है
उतरने से पहले
वह फिर
साफ-सुथरी हो जाती है।