वर्षा ऋतु
लू के थपेड़े रुके
सूरज के घोड़े थके
बहने लगी पुरवाई।
वर्षा ऋतु आई।।
चींटियां सुरंग घुसीं,
घोसलों में बया छुपी,
चातक ने टेर लगाई।
वर्षा ऋतु आई।।
धरती की प्यास बुझी
सोंधी-सोंधी बास उठी
परती में गाभ मुस्काए
जो थे सँजोये आस
फिर से उगेंगे पात
तरुवर सब हरियाए
दादुरों ने ढोल बाजे
झूम के मयूर नाचे
झींगुरों ने झांझ बजाई।
वर्षा ऋतु आई।।
दामिनी दमक रही
कामिनी सिमट रही
काली घटा छाने लगी है
नभ दुंदुभी बज रही
डालियाँ गले लग रहीं
हवा गुनगुनाने लगी है
छाजन टपकने लगा
मन भी मचलने लगा
बूंदों ने पायल छमकाई।
वर्षा ऋतु आई।।
फूलों की बहारों में
झूलों की कतारों में
सखियाँ इठलातीं, इतरातीं
पिया का गुणगान करतीं
गुड़-गोबर समान करतीं
हरी-हरी चुनरी लहरातीं
कजरी मल्हार सुनके
यमुना को पार करके
गोकुल में जन्में कन्हाई ।
वर्षा ऋतु आई।।
जुगनू जगमगाने लगे
तारें झिलमिलाने लगे
रातें भी हुई मतवाली
पानी के पनारे चले
टूटते किनारे चले
नदियों ने सीमा बढ़ा ली
टूटके खजूर बहे
बड़ों के गुरूर बहे
बह चली ऊषा की ललाई।
वर्षा ऋतु आई।।
✍ रोहिणी नन्दन मिश्र, इटियाथोक
गोण्डा- उत्तर प्रदेश