वनिता
मां,बेटी,बहन,बहू,दारा,
एकल तन में रचना सारी।
अम्बर,सागर सा विस्तारण,
जग की अद्भुत रचना “नारी”।
वात्सल्यांचल जब भी पकड़ा,
मां बन ईश्वर के समान मिली।
दुहिता भगनी तुममें देखा,
देवी शक्ति का भान मिली।
अर्धांगिन जीवनसाथी बन,
चल साथ हर लिया सभी दुख।
भार्यासुत की बन घर आयी,
गोचर ज्यों लक्ष्मी वैभव सुख।
मन का मयूर नर्तन करता,
पहली आभा प्रभात जगी।
जब प्रियसी रूप धरा तुमने,
वीणा की मृदु झंकार लगी।
वीराने पतझड़ ऋतु में तुम,
मधुमास सुगन्ध बहाती हो।
उबड़ खाबड़ जीवन पथ पर,
समतल पथवत बन जाती हो।
कुब्जा हो, श्याम की मीरा हो।
तुम राम कृष्ण की माता हो,
रूखमणी राधिका कान्हा की,
नर की तुम भाग्य विघाता हो।
अपने कोमल हाथों से तुम
पलने की डोर चलाती हो।
पर समय पड़ा विपरीत कोइ,
रणचंडी भी बन जाती हो।
यदि धरा सुशोभित है चहुँ दिश,
इसका भी श्रेय तुम्हें नारी।
सृजन न करता प्रभु तेरा,
मरुधर दिखती अवनी सारी।
पुष्प वाटिका सजती जैसे,
बहुरंगी और बहु रूपों से।
वैसे नारी पोषण करती,
धर कर भिन्न भिन्न रूपों से।
मन्त्रणा में तुम मंत्री होती,
कारज में बन जाती दासी।
भोजन करवाती माता बन
रजनी हरती सकल उदासी।
माँ स्वरूप में दाता दिखती,
बहन निरख हर्षाता मन।
प्रियसी बन आती समक्ष तो,
राग रंग जग जाता तन।
अद्भुत रचना सृजनहार की,
गीत ग़ज़ल या स्तुति हो।
दूजी उपमा नहीं कोई बस,
हरि की अनुपम प्रस्तुति हो।
मनुहार तुम्हें है प्यार तुम्हें,
है नमस्कार तुमको नारी।
नर ऋणी तेरे उपकारों से,
है सृजन तेरा अति आभारी।