वजूद
—वजूद—
पेड़ पर अटकी पतंग ,
कितनी कोशिश
करती है ,छूटने की रिहा होने की , पर हर
बार स्वयं के भरसक प्रयास के बावजूद हार
जाती है…….और खो देती है स्वयं का वजूद
कभी हवा के तेज़ झोंके तो कभी बारिश की बूंदे उसके वजूद को खत्म कर देते है
डोर वही ………पतंग बदल जाती है
बदल जाते है हर और फ़िज़ा के रंग….
फिर उसी डोर के साथ नई पतंग मदमस्त
स्वछन्द आकाश में विचरण करती….
इठलाती बलखाती….
मदमस्त….स्वयं के वजूद से अंजान
हवा के झोंके के साथ लहराती
फिर वही अंजाम…….नई पतंग
डोर वही….
वजूद रहा तो सिर्फ डोर का …
पतंग आती रही ………….पतंग जाती रही ।।
माधुरी स्वर्णकार__