वक्त
लगता है चलते-चलते वक्त कुछ पीछे छूट गया ,
कुछ ऐसे गुजरा की कुछ पता ही नहीं चला ,
हम कहां थे ? कहां से कहां आ गए ?
हम क्या थे ? क्या से क्या हो गए !
कुछ अपनी किस्मत, कुछ अपनी फितरत,
कुछ अपनी मर्ज़ी, कुछ ख़ुदगर्ज़ी,
कुछ अपनी अना, कुछ अपनी वफ़ा से
कुछ मा’ज़ूर , कुछ मजबूर ,
हम क्या से क्या बनकर रह गए !
ख्वाहिशें तो कुछ थीं आसमाँ छूने की ,
ख्वाबों को हक़ीक़त में बदलने की ,
पर वक्त रहते वक्त की कीमत ना पहचान पाए !
भटकते रहे सराबों में हक़ीक़त ना जान पाए !
अब कहते हैं वक्त की गर्दिश ने हमें मार दिया !
जबकि जाने- अनजाने हमनें वक्त को मार दिया।