मैं अलहड सा
वक्त दे पाया दुनियां को
एक दिन किताबों से निकलकर ।
सोचा था दुनियाँ खूबसूरत होगी
मेरे अलहड से वक्त पर ।।1।।
लोग खूबसूरत थे, दिख रहे थे
चन्द पैसों में बिक रहे थे ।
मैं अलहड़ सा समझ ना पाया
ये बाजारों के हिस्से थे ।।2।।
चन्द फासले आगे चला
वो एकाएक किनारे पे थे ।
लगता है वो शौकिया मिजाज के हैं
वो समंदर की बाहों में थे ।।3।।
दूर नजर का हुआ ठिकाना
पत्थर पर कुछ पत्थर खड़े थे ।
मैं अलहड़ सा समझ ना पाया
ये तो भविष्य के घर थे ।।4।।
देख दीवारों पर फिर बंदर
जंगल,समंदर घर के अंदर ।
लगता हैं सब बदल गया हैं
इंसान जंगल में रह रहा है ।।5।।
फिर लौट आया किताबों में
कुछ बिखरे सवालों में ।
मैं अलहड़ सा समझ ना पाया
दौड़ में कुछ बहुत आगे थे ।।6।।