वक्त का सिलसिला बना परिंदा
वक्त का सिलसिला बना परिंदा
उड़ता जा रहा कहीं
साल ऐसा बिता
वक्त ऐसे कटे
कभी उजाड़ा
तो बसता चला जा रहा कहीं
हासिल क्या हुआ
ये किसे खबर
आइना,
झुर्रियां दिखाता जा रहा
शून्य का मूल्य
जमाने के लिए है
खुद के लिए क्या हासिल किया
वो शून्य लगता रहा
गिनी हुई सांसे लेकर आया था
हिसाब वो भी चुख्ता हुआ
चलो अब तारों की दुनियां में
यहां जितना था
सब पराया हुआ।
@ अभिषेक