लौटकर आओगे जब…
लौटकर आओगे जब,
ड्योढ़ी पर पाओगे मुझे,
एकटक ताकते हुए —
हवा की सांसे और दीवारों का मौन,
सब कहेंगे कुछ न कुछ तुम्हारे बारे में।
तुम्हारी प्रतीक्षा में
ये ड्योढ़ी भी थक चुकी होगी,
और मैं —
मैं जैसे कोई पत्थर
जिसने बरसों से
सिर्फ तुम्हारी राह देखी है।
तुम्हारे बिना —
इस घर का हर कोना
एक शून्य बन चुका है,
वो शून्य जो बिखरा है
मेरे भीतर और बाहर,
जहां भी देखो,
तुम्हारे लौटने की आस है
या फिर तुम्हारी यादें।
हवा से पूछो,
वो बताएगी तुम्हें
कैसे हर रोज़
उसने मेरे आँसुओं को
बहाकर ले जाता है,
जैसे कोई पुराना गीत,
जो न सुना गया न भुलाया गया।
और तुम —
तुम कहां थे?
क्या कभी सुनी थी तुमने
इस ड्योढ़ी की ख़ामोशी?
क्या कभी महसूस किया था
मेरे मौन का बोझ,
जो हर गुजरते दिन के साथ
और भारी हो गया है?
तुम लौटोगे
और तब मैं पूछूंगी—
क्या सचमुच लौटे हो
या फिर
सिर्फ कोई स्मृति भर हो तुम,
जैसे हवा में बसा
कोई पुराना नाम,
जो कभी था,
पर अब कहीं नहीं।
मैं खड़ी रहूंगी वहीं,
जहां बरसों से खड़ी हूँ,
तुम्हारे बिना,
अपने भीतर के शून्य में।
और तब,
तुम पाओगे मुझे
एक अनकहा सवाल लिए —
क्या लौटना कभी
सचमुच लौटना होता है?
तुम बिन…
यह घर भी अब
सिर्फ एक प्रतीक्षा है
और मैं —
सिर्फ एक छाया
तुम्हारे इंतजार की।
—श्रीहर्ष —