लोभी आकंक्ष्या
लोभी आकंक्ष्या
मेरी आकंक्ष्या या लक्ष्य;
मेरा चरित्र का शंसय,
लिये हुये है आकर्षण,
अपर्याप्त,असन्तुस्ट मन,
सिर्फ उत्कर्षं की प्रतीक्षा;
अतृप्त स्रवभुक लक्ष्य चुना
कुछ भी करना चाहता-
मोह सदा ही रहता सामने
जैसे तैरता मीन का नेत्र;
उसे भेदना हर हाल मे
न्याय या अन्याय का भाष,
कोई भी हो रास्ता या एहसास
स्वार्थ के आगे सब बौने
भावनाओं का क्या काम,
खोजता हूँ मेरी प्रसन्नता;
सिक्को की झंकार मे…..
विचित्र नहीं यह सोच,
चाहे इस चाहत मे,
बरबादी निश्चित पहचान;
नया कुछ भी नहीं जान,
पर नहीं जाता नई राह मे
साहस भी नहीं,
न लड़ने की क्षमता;
डराये मुझे भयावहता;
सोच की व्याकुलता;
मुझे छिन्न-भिन्न करती
क्यों की हर तरफ दिखता,
नीचता काले मन की;
मिलती कुठील मुस्कान;
औपचारिकता निभाते,
और लोभ से परिपूर्ण
हर कोई घूम रहा ,
अपना मृत देह-आत्मा ;
अपने कंधों पर लिये।।।
सजन