लोकतंत्र के प्रहरी
लोकतंत्र के प्रहरी –
झूठे वादों की धुन पर नाचते जनतंत्र के प्रहरी ,
हर वादा किताबी किस्से की झूठी दास्तान है ।
दबी सच की आवाज ,सजने लगा राजनीति का रंगमंच ,
हर मुखौटे के पीछे जो छुपा चेहरा अनजान है ।
आइना लोकतंत्र का नहीं दिखाता असली चेहरा,
हर रूप यहाँ नज़रों का धोखा, हर सूरत बेईमान है।
उम्मीदों के घोड़े पर सवार, चढ़े हैं सत्ता के रखवाले ,
भोली जनता के सीने में दफ़न लाखों अरमान है।
जाति,धर्म,की लगाकर आग ,सेक रहे मतलब की रोटियां,
मतपेटी में बंद वोटों की हकीकत , क्या सच में अनजान है?
राजनीती के रंगमंच में तालियाँ बजवाने को ,
मसखरों और जुमले बाजों से सजा मचान है ।
लोकतंत्र के दर्पण का कितना झूठ कितना सच ,
जो दिखे वो असलीयत का ‘असीमित’ प्रमाण है ।