# लॉकडाउन 4.0 ” दूरियाँ “
इस ज़िंदगी की आदत सी पड़ती जा रही है
ज़िंदगी तो अपनी रफ़्तार से चली जा रही है !
अपनों से दूरी का कोई एहसास नही है
अपने पास हैं दिल ठंडा है कहीं कोई धाँस नही है ,
कहीं घूम आते कहीं खा आते अब इसका भी मलाल नही है
दिन भर काम कर करके भी थकने का सवाल नही है ,
आजकल तो कॉल बैल भी बजाता नही कोई है
कौन आयेगा ? ये सोच खुद को सजाता नही कोई है ,
ना पार्टी है ना गोष्ठी है ना ही सभा कोई है
ना हाथ मिलाता ना ही गले लगाता कोई है
मन की दूँरियों को छिपाता कोई कोई है
पर अब तन की दूरियाँ दिखाता हर कोई है ,
अब तो दुश्मनों के साथ दोस्तों को रखना मजबूरी हो गई है
हर एक शख़्स से छ: फ़िट की जो दूरी ज़रूरी हो गई है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 17/05/2020 )