ले चेतना के पंख सजीले
ले चेतना के पंख सजीले
नभ अनंतर उड़ रहे हम
दिव्य गंध सुगंध भर
सुप्त श्वासें जग रहे हम।
कोकिल कलरव गुंजायमान
मौन का है आह्वान
देख रहे देखो चितेरे
आनंद धाम रम रहे हम।
ले चेतना के पंख सजीले
नभ अनंतर उड़ रहे हम।
ये जगत की विराट लीला
जगतजननी की क्रीड़ा मात्र
और विध्वंस की लहर देखो
मोहिनी तुम्हारा अट्ठहास मात्र
एक नीरव देश देखो
मोह बंधन बंध रहे हम।
चेतना के पंख सजीले
नभ अनंतर उड़ रहे हम।
~ माधुरी महाकाश